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चांदनी भीतर की
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जाता है। यदि राजीमती के मन को आघात और चोट नहीं लगती, उसका मन दुःख से नहीं भरता तो राजीमती राजीमती नहीं बन पाती। इतनी प्रबुद्ध और बहुश्रुत साध्वी नहीं बन पाती। चोट लगी और चैतन्य जागृत हो गया। जब अरिष्टनेमि वापस चले गए तब उसकी व्यथा का कोई अंत नहीं था । ऐसा राजकुमार, जो दुनियां में ढूंढने पर भी न मिले, घर के द्वार तक आकर लौट जाए। चोट में कोई कमी नहीं थी । कभी-कभी वह चोट ऐसी लगती है, अतीन्द्रिय चेतना जाग उठती है। समाचार पत्रों में पढ़ा- एक व्यक्ति गिरा, चोट लगी और उस स्थान पर चोट लगी, अतीन्द्रिय चेतना खुल गई। उस व्यक्ति की भविष्यवाणियों से संसार चकित रह गया । तिब्बत में तीसरा नेत्र खोलने के लिए आपरेशन किया जाता रहा है। अमुक स्थान पर चोट लगती है, भाग्य खुल जाता है।
सचमुच राजीमती का भाग्य खुल गया और ऐसा भाग्य खुला, वह विलक्षण साध्वी बन गई। उसका चरित्र आज भी उदात्त, महान् और विलक्षण बना हुआ है। राजीमती के तर्क
राजीमती ने उस समय जो तर्क प्रस्तुत किए, वे आज भी मानव मन के अंधकार को चीरने वाले बने हुए हैं। राजीमती ने कहा- आप कौन है ? आपका वंश क्या है ? उसकी ओर भी ध्यान दें। हमारा वह कुल है, जिसमें व्यक्ति संकल्प लेकर चल पड़ता है तो पीछे मुड़कर नहीं देखता । आपके पैर पीछे हट रहे हैं। ऐसे कुल में पैदा होकर आप क्या कर रहे हैं ?
मैं भोजराज की पुत्री हूं और आप । अंधकवृष्णि के पुत्र । ये दोनों महान वंश हैं, इस दुनिया में, जिनकी शक्ति और प्रभुत्व का दुनिया लोहा मानती है। हमने कभी पीछे हटना नहीं सीखा। इस कुल में पैदा होकर आप पीछे हट रहे हैं ? यह आपके लिए अच्छा नहीं है। हम अपने कुल में गंधन सर्प की तरह न बने। संयम में स्थिर रहना ही हमारे लिए श्रेयस्कर है। यदि आप स्त्रियों को देख इस प्रकार का भाव लाएंगे तो अस्थितात्मा बन जाएंगे।
अहं च भोयरायस्स त्वं च सि अन्धगवण्हिणो । मा कुले गंधणा होमो, संजमं निहुओ चर ॥ जइ तं काहिसि भाव, जा जा दच्छसि नारिओ । वाया विद्धोन्व हो । अट्टिअप्पा भविस्ससि ।।
गिरे नहीं, संभल गए
राजीमती का प्रतिबोध बुद्धिमानी से परिपूर्ण था । बुद्धिमान् व्यक्ति समझाता है
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