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________________ मन की चंचलता पर कोई अंकुश लगा पाएं, खिड़कियां खुलती-सी नजर आएगी। हरिकेशबल की खिड़कियां खुल चुकी थी इसलिए उसे यह कहने का अधिकार मिला-तपस्या श्रेष्ठ है, जाति श्रेष्ठ नहीं है। भृगु पुरोहित के पुत्रों ने भीतर में झांका, तभी उन्होंने कहा-पिता ! आत्मा अमूर्त है, उसे इन्द्रियों द्वारा नहीं देखा जा सकता। भीतर की ज्योति विशद हुई और महारानी कमलावती बोल उठी-नरदेव ! केवल धर्म ही त्राण है, अन्य कोई त्राण नहीं है। ___गर्दभालि अंतर के आलोक से आलोकित थे। उनकी एक आलोक-रश्मि प्रस्फुटित हुई और अंतःस्वर गूंज उठा-राजन् ! तुम्हें अभय देता हूं। तुम भी सब जीवों को अभय दो। मृगापुत्र के अंतश्चक्षु उद्घाटित हो गए थे। कितना अमोल है उनका यह बोल-मैं इस अशाश्वत शरीर में आनंद नहीं पा रहा हूं, जो एक दिन विलग हो जाएगा। मुझे उस शाश्वत की खोज करनी है, जो सतत मेरे साथ रहे। अनाथ मुनि ने भीतर की ज्योत्स्ना में झांक कर सम्राट् श्रेणिक से कहा-मगध के अधिपति श्रेणिक ! तुम स्वयं अनाथ होकर मेरे नाथ कैसे बनोगे? समुद्रपाल ने बंदी बने हुए चोर को देखा और भीतर की खिड़कियां एक साथ एक झटके में खुल गई। संबोधि ने उनका वरण कर लिया। अर्हत् अरिष्टनेमि की अतीन्द्रिय चेतना जागृत थी। बाड़ों और पिंजरों में कैद किए हुए पशुओं और पक्षियों का स्वर उन कानों से सुना, जो दूसरों का अमंगल कर मंगल गीत सुनने को तैयार नहीं थे। ये सारे स्वर साक्ष्य हैं भीतर की चांदनी के। इनको सुनने के लिए अपेक्षित है, भीतर की चांदनी जागे। मुनि दुलहराज जी प्रारंभ से ही साहित्य संपादन के कार्य में लगे हुए हैं। वे इस कार्य में दक्ष हैं। प्रस्तुत पुस्तक के संपादन में मुनि धनंजय कुमार ने निष्ठापूर्ण श्रम किया है। युवाचार्य महाप्रज्ञ २१ अगस्त, १९६२ जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003082
Book TitleChandani Bhitar ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages204
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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