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ब्रह्मचर्य : सृजनात्मक शक्ति एक आदमी संन्यासी के पास गया और धन की याचना की। संन्यासी ने कहा-मेरे पास कुछ भी नहीं है।' उसने बहुत आग्रह किया तो संन्यासी ने कहा'जाओ नदी के किनारे एक पत्थर पड़ा है, वह ले आओ।' वह गया और पत्थर ले आया। संन्यासी ने कहा- 'यह पारसमणि है, इससे लोहा सोना बन जाता है।' वह बहत प्रसन्न हआ। संन्यासी को प्रणाम कर वह वहां से चला। थोड़ी दर जाने पर उसके मन में एक विकल्प उठा-पारसमणि ही यदि सबसे बढ़िया होता तो संन्यासी इसे क्यों छोड़ता? संन्यासी के पास इससे भी बढ़िया कोई वस्तु है । वह फिर आया और प्रणाम कर बोला—'बाबा ! मुझे यह पारसमणि नहीं चाहिए, मुझे वह दो जिसे पाकर तुमने इस पारसमणि को ठुकरा दिया।'
पारस को ठुकराने की शक्ति किसी भौतिक सत्ता में नहीं हो सकती । अध्यात्म ही एक ऐसी सत्ता है, जिसकी दृष्टि से पारसमणि का पत्थर से अधिक कोई उपयोग नहीं है । काम-भोग को आप पारसमणि मान लें, मुझे कोई आपत्ति नहीं होगी, किन्तु वह सबसे बढ़िया नहीं है, सुखानुभूति का सर्वाधिक साधन नहीं है। आनन्द के स्रोत का साक्षात् होने पर आदमी उसे वैसे ही ठुकरा देता है, जैसे संन्यासी ने पारसमणि को ठुकराया था।
उपनिषद के ऋषियों ने गाया-आनन्दं ब्रह्म ! आनन्द ब्रह्म है। यदि आनन्द नहीं होता तो हमारा जीवन बझी हई ज्योति जैसा होता। हमारे शरीर में से एक रश्मिपुंज प्रसृत हो रहा है। हमारी आंखों में प्रकाश तरंगित हो रहा है। यह सब क्या है? हमारे आनन्द की अभिव्यक्ति है। हमारी चेतना में आनन्द का सिन्धु लहरा रहा है। हमारा मन आनन्द की खोज में बाहर दौड़ रहा है । ठीक कस्तूरी मृग की दशा हो रही है। कस्तूरी नाभि में है और वह कस्तूरी की खोज में मारा-मारा फिर रहा है। विषयों की अनुभूति में सुख नहीं है, ऐसा मेरा अभिमत नहीं है। विषयों से प्राप्त होने वाला सुख असीम नहीं है, शारीरिक तथा मानसिक अनिष्ट की परिणति से मुक्त नहीं है । चेतना में आनन्द सहज स्फूर्त है, असीम है और उसके परिणाम में ग्लानि की अनुभूति नहीं है ।
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