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९१४ । मुंक्त भोग की समस्या और ब्रह्मचर्य जाए, जीने का सारा रस निचड़ जाए। यदि आदमी अपना मनचाहा न करे तो जीए किसलिए?' यह कहते हुए राजा ने आम खा लिया। आम खाते ही बीमारी का दोष उभर आया और सांझ होते-होते राजा इस संसार से विदा हो गया।
इन्द्रिय की उच्छंखलता मानसिक, शारीरिक और भावनात्मक स्वास्थ्य को कितना प्रभावित करती है, यह इस उदाहरण के द्वारा समझा जा सकता है। ऐसी एक नहीं, अनेक घटनाएं घटती हैं। जब व्यक्ति अत्यधिक असंयम में प्रवृत्त होता है तब वह अपनी इन्द्रियों की उच्छंखलता के कारण अनेक कठिनाइयों को झेलता है
और कभी-कभी वह अपने आपको मौत के मुंह में भी धकेल देता है। उत्तराध्ययन सूत्र में इस कथा का संकेत देते हुए कहा गया
अपत्थ अम्बगं भोच्चा राया रज्जत हारए। जैसे अपथ्य आम को खाकर राजा ने अपना राज्य गंवाया वैसे ही संयमी मनि संयम के लिए जो अपथ्य है, उसका सेवन कर आध्यात्मिक राज्य को खो देता है। इन्द्रिय-संयम क्यों?
गृहस्थ जीवन में इन्द्रिय के संयम की एक सीमा है। उस सीमा तक सबको संयम करना चाहिए। जीभ का संयम, चक्षु का संयम, कान का संयम और स्पर्श का संयम एक गृहस्थ के लिए भी आवश्यक है। एक सीमा तक सबका संयम जरूरी है। व्यक्ति संयम नहीं करता है तो उसका शरीर खोखला बना जाता है, भीतर की सारी शक्तियां चुक जाती हैं। मनुष्य कोरा हाड़-मांस का पुलिंदा जैसा रह जाता है। एक सामाजिक प्राणी के लिए एक सीमा तक इन्द्रिय-संयम आवश्यक है, जिससे उसके स्वास्थ्य को नुकसान न पहुंचे, आर्थिक और व्यावहारिक जीवन में बाधा न आए। जहां इन्द्रियों का असंयम सामाजिक और व्यावहारिक जीवन में बाधा डालना शुरू कर देता है वहां समस्या पैदा हो जाती है । न जाने कितने राजाओं ने अपनी वृत्तियों की उच्छंखलता के कारण अपने राज्य को गंवा दिया और पराधीन हो गए। एक ओर दुश्मन का हमला हो रहा है, दूसरी ओर शासक महलों में रंगरेलियां मना रहे हैं। इन्द्रियों के असंयम में रत ऐसे राजाओं के कारण हिन्दुस्तान को अनेक बार परतंत्रता का मुंह देखना पड़ा है। महामात्य कौटिल्य ने कहाशासक और सामाजिक प्राणी—दोनों के लिए एक सीमा तक इन्द्रिय-संयम जरूरी है। स्वास्थ्य के लिए उस सीमा से परे संयम की जरूरत है। केवल शारीरिक स्वास्थ्य के लिए ही नहीं, किन्त अतीन्द्रिय चेतना का विकास करने के लिए, भावपक्ष का विकास करने के लिए, आध्यात्मिक जीवन का विकास करने के लिए
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