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११. एक प्रश्न, जो आज भी अनुत्तरित है
समतामूल्क समाज के स्वप्न अनेक बार देखा गया है और देखा जा रहा है । उसकी स्थापना के लिए संविधान में समता के प्रावधान रखे गए हैं और रखे जा रहे हैं । फिर भी यह कटु सत्य है- समता की अपेक्षा विषमता अधिक व्याप्त है । जाति, धर्म-संप्रदाय, भाषा, रंगभेद भौगोलिक परिस्थिति अथवा सांस्कृतिक भेद किसी-न-किसी बहाने विषमता फूट पड़ती है। इतने स्वप्नों, प्रयत्नों और संवैधानिक आरक्षणों के उपरान्त भी विषमता की जड़ें गहरी होती चली जा रही हैं । उनका हेतु क्या है ? क्या वह हमारे बाहरी वातावरण में है ? अथवा कहीं अन्तर में चेतना के स्तर पर है ?
विद्यमान है विषमता
हम हर समस्या का समाधान बाहरी वातावरण में खोजते हैं । यह हमारी आदत ही बन गई है । विषमता के मूल हेतु चेतना के स्तर पर विद्यमान हैं । कुछ मूर्च्छा के स्तर पर और कुछ मान्यता के स्तर पर । हरिजनों के प्रति सवर्ण हिन्दू समाज की मान्यता आज भी समतामूलक नहीं है। गांवों का वातावरण आज भी विषाक्त है। ग्रामीण लोग हरिजनों को बराबरी का दर्जा देने की बात सोच ही नहीं पा रहे हैं । उनके उत्पीड़न की घटनाएं घटती रहती हैं । अभी भी बहुत गांवों में हरिजन कुएं पर जल भरने में संकोच के साथ ही जाते हैं । यह भय और आतंक का वातावरण स्वतंत्रता की सूचना नहीं है । जातिवाद के संस्कार इतने गहरे हैं कि मानवीय एकता का सिद्धांत उनके सामने टिक नहीं पा रहा है ।
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