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४०. मन का शरीर पर प्रभाव
ध्यान की साधना करने वाले बहुत बार कहते हैं-ध्यान सदा एक जैसा नहीं होता । कभी अच्छा होता है, कभी अच्छा नहीं होता । मन भी उसमें सदा एक जैसा नहीं लगता । कभी मन पूरा लगता है, कभी मन नहीं लगता । उतारचढ़ाव आता रहता है । हम ध्यान की बात छोड़ दें । सामान्य जीवन में भी व्यक्ति के सामने यह समस्या रहती है कि मन की स्थिति सदैव एकरूप नहीं रहती । कभी मन में बड़ा उत्साह होता है और कभी डिप्रेशन । कभी आनन्द
और कभी दुःख का अनुभव । कभी अचानक बेचैनी हावी हो जाती है । यह सब क्यों होती है ? बहुत गहराई में जाकर मनोविज्ञान की दृष्टि से इस विषय को मीमांसित करें तो पाएंगे-जैसे-जैसे रसायन बदलते हैं वैसे-वैसे मन की स्थिति बदलती रहती है । रसायनों का बहुत बड़ा हाथ है, हमारी मानसिक स्थितियों के बदलाव में ।
प्रश्न अहेतुक की मीमांसा का
कोई अप्रिय घटना घटती है तो मन में दुःख आता है, यह बात सहज समझ में आती है किन्तु किसी अप्रिय घटना के न घटने पर भी मन दुःखी हो तो समझने में कुछ कठिनाई होती है । स्थानांग सूत्र में क्रोध के जो प्रकार बताए गए हैं, उनमें एक है-अप्रतिष्ठ क्रोध । अर्थात् जिस क्रोध का कोई आधार नहीं है । केवल क्रोध ही नहीं, अहंकार, लोभ, दुःख, भय ये सारे आवेग जो हैं, कभी-कभी अहेतुक उत्पन्न हो जाते हैं । जिनके पीछे कोई हेतु, कोई कारण नहीं होता । अकारण या अहेतुक वस्तु की व्याख्या करने में आदमी कठिनाई महसूस करता है । इस बात को हम शरीर और मन के सम्बन्ध को
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