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अध्यात्म का प्रथम सोपान : सामायिक
प्रयत्न, प्रलंब काल और दृढ़ धैर्य अपेक्षित होता है। हमारा लक्ष्य निश्चित है । हम लक्ष्य के अभिमुख होते हैं तो वहां पहुंच भी सकते हैं । तेज चलने वाला पहुंच जाता है और धीरे चलने वाला विलम्ब से पहुंच पाता है | पहुंचेगे दोनों, चाहे शीघ्रता से या विलम्ब से ।
चलत् पिपीलिका याति, योजनानि शतान्यपि ।
अगच्छन् वैनतेयोपि, पदमेकं न गच्छति ॥ गरुड़ यदि शांत, स्थिर एक ही स्थान पर बैठा रहता है तो वह एक कदम भी मार्ग तय नहीं कर पाता और एक क्षुद्र चींटी चलती-चलती सैकड़ों योजन की दूरी पार कर लेती है ।
मुख्य बात है चलना, प्रयत्न करना, अभ्यास करना । प्रश्न है क्या हम समता की चेतना को जगाने की दिशा में चलना चाहते हैं या नहीं ? यदि चलना नहीं चाहते हैं तो साधना समाप्त है । यदि चलना चाहते हैं तो चलें । मंजिल निकट आती-सी प्रतीत होगी ।
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