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अध्यात्म का प्रथम सोपान : सामायिक
विश्वास और आश्वास का स्थल है । जैन पारिभाषिक शब्दावली में इसे 'पारिणामिक भाव' कहा है। यह भाव है इसीलिए आत्मा का अस्तित्व समाप्त नहीं होता, अन्यथा इतना दबाव है परिस्थितियों का, कर्म-परमाणुओं का और शरीर का कि उसका अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है । किन्तु यह शाश्वत है पारिणामिक भाव, जो अपने अस्तित्व को सदा बनाए रख रहा है । उसके आधार पर हमारे शरीर की संरचना भी ऐसी हुई है कि हमारे शरीर में सब दो-दो हैं । क्रोध करने का केन्द्र मस्तिष्क में है तो उसके उपशमन का केन्द्र भी मस्तिष्क में है । जितनी वृत्तियां हैं, आवेश आवेग हैं, उन सबके केन्द्र मस्तिष्क में हैं तो साथ-ही-साथ उन सबके नियन्त्रण केन्द्र भी मस्तिष्क में हैं । यदि केवल वृत्तियों को जन्म देने वाले या उभारने वाले ही केन्द्र हों और नियामक केन्द्र न हों तो आदमी जी नहीं सकता । दोनों साथ-साथ हैं । शरीर में दोनों प्रकार की व्यवस्थाएं हैं। संवेगों को उद्दीप्त करने की व्यवस्था है तो संवेगों पर नियंत्रण करने की भी व्यवस्था है । कर्मशास्त्र की भाषा में कहा. जा सकता है कि हमारे शरीर में औदयिक भाव की व्यवस्था है तो क्षायोपशमिक भाव की भी व्यवस्था है । औदयिक भाव विषमता पैदा करता है और क्षायोपशमिक भाव विषमता को कम करता है, समता लाता है । इसलिए प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में जहां चित्त की विषमता मिलेगी वहां कुछ न कुछ समता भी मिलेगी । ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं है इस संसार में, जिसमें केवल विषमता हो या केवल समता हो । जब तक व्यक्ति चेतना के विकास के अन्तिम बिन्दु तक नहीं पहुंच जाता तब तक वह पूर्ण समभाव को प्राप्त नहीं होता | इसलिए साधना करने वाला साधु भी कभी क्रोध में आता है, कभी दूसरे दूसरे संवेगों का स्पर्श करता है और साधना न करने वाला भी क्षमा करता है, संवेगों का स्पर्श नहीं करता । ये दोनों स्थितियां मिलती हैं । आदर्श है वीतरागता
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समता की चेतना का पूर्ण विकास, यह आदर्श की बात है, बहुत आगे की बात है । समता या वीतरागता हमारा आदर्श है । हमें उस बिन्दु तक पहुंचना है। वहां पहुंचने पर मूल बीज - राग और द्वेष नष्ट हो जाते हैं । चार अवस्थाएं हैं। एक अवस्था है- उपशमन की, दूसरी है - क्षयीकरण
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