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समता की चेतना का विकास
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है । सुख के साथ अहं की ग्रंथि और दुःख के साथ हीनता की ग्रंथि जुड़ जाती है। दुःखी आदमी हीनभावना से ग्रस्त होता है और इतना ग्रस्त कि वह निराशा का जीवन जीने लगता है । वह सोचता है, यह संसार मेरे जीने योग्य नहीं है । जीवन में मेरा कोई अस्तित्व ही नहीं है । सारा जीवन बेकार है ।
सुख के साथ अहं की ग्रंथि घुलती है और तब आदमी स्वयं को सम्राट मानकर जीता है । यह अहं भावना उसमें अनेक कुंठाएं पैदा करती हैं । मृत्यु भी महोत्सव है
आदमी जीवन को बहुत मूल्य देता है और मरने को बहुत खतरनाक मानता है । वह मरने से डरता है और जीने के प्रति लगाव रखता है । उसने अपने मन को इस द्वन्द्व के साथ जोड़ रखा है, इसलिए वह ऐसी स्थिति का अनुभव करता है । मरना-जीना एक नियति है, घटना है । अनुभवी साधकों ने लिखा कि शरीर को बदलना कोई विशेष घटना नहीं है । जन्म जैसे महोत्सव है, वैसे ही मृत्यु भी एक महोत्सव है । 'मृत्यु महोत्सव' नामक ग्रंथ भी उपलब्ध है । गीता कहती है-जैसे आदमी पुराने या जीर्ण कपड़े उतार कर नया कपड़ा पहनता है, वैसे ही है यह मरण | इससे डरने की क्या बात है ! बड़े-बड़े आचार्यों ने इस बात को समझाया है । अनेक ग्रन्थ इस बात को सप्रमाण प्रस्तुत करते हैं | आदमी ने यह अनेक बार सुना है, पढ़ा है, फिर भी वह जीवन से मोह करता है और मरने से घबराता है | यह चित्त की विषमता की निष्पत्ति है । द्वन्द्व का परिणाम
निंदा होती है, आदमी घबरा जाता है, दुःखी बन जाता है । प्रशंसा में दो शब्द सुनता है, फूल जाता है, बेभान हो जाता है | तब उसे बोलने का पूरा विवेक नहीं रहता । वह अहंकार में आ जाता है ।
चुनाव का दौर था । उम्मीदवार गांव-गांव में जाकर जनता को अपनी बात समझा रहा था । एक गांव में चुनाव सभा हुई । भाषण हुआ । जनता ने कहा-हम आपको जिताना चाहते हैं, पर एक शर्त है कि गांव में अच्छा श्मशानघाट नहीं है । आप मंत्री बनेंगे, तब आपके लिए कुछ भी करना कठिन नहीं होगा।' उम्मीदवार प्रशंसा सुनकर फूल गया । वह बेभान होकर बोला-यह
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