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तराजू के दो पल्ले
१६९ पता आदि पूछ लेता है और जब कभी पुनः मिलता है तब उसे पहचान भी लेता है । यह है प्रत्यभिज्ञान-पहचानने जैसा निरीक्षण |
अनध्यवसाय ओर प्रत्यभिज्ञान-इन दोनों से कोई सार्थक निष्पत्ति उपलब्ध नहीं होती। अन्वेषण
तीसरा तत्त्व है-अन्वेषण-सतत निरीक्षण | सतत निरीक्षण के बिना ज्ञान और सत्य की प्राप्ति संभव नहीं है । वस्तुतः सतत निरीक्षण ही अनुसंधान है । एक, दो या पांच बार देखना सतत संधान नहीं होता ! सतत संधान का अर्थ है-जब तक किसी वस्तु के नियम का पता नहीं चले, तब तक उसे देखते चले जाना । यदि हमें एक श्लोक के हृदय को समझना है तो उसे एकदो बार पढ़कर ही नहीं समझा जा सकता । हम उस श्लोक को पढ़ें, पढ़ते चले जाएं और तब तक पढ़ते रहें जब तक कि वह श्लोक अपना अर्थ स्वयं प्रकट न कर दे | जब श्लोक अपना अर्थ प्रस्तुत करेगा तब हम उसके हृदय तक पहुंचने में सफल होंगे ।
बहुत महत्त्वपूर्ण सूत्र है-तुला का अन्वेषण करो, खोजते चले जाओ। जब तक चलनी में पानी न जम जाए, नियम का पता न लग जाए तब तक खोजते चले जाओ । आज यह नियम ज्ञात है-जहां-जहां धुआं है, वहां-वहां अग्नि होगी । यह अकाट्य नियम है पर जहां अग्नि है, वहां धुआं होगा, यह जरूरी नहीं है | अग्नि धुएं के बिना भी हो सकती है पर धुआं अग्नि के बिना नहीं होता । यह एक सामान्य नियम लगता है लेकिन इस नियम का पता लगाने में न जाने कितनी पीढ़ियां खपी हैं, न जाने कितने विद्वानों को खपना पड़ा है।
जरूरी है सतत प्रयत्न
ज्ञान-प्राप्ति के लिए सतत प्रयत्न करना होता है । इसके बिना ज्ञान की प्राप्ति संभव नहीं है । ज्ञान-प्राप्ति के लिए सबसे पहले निरीक्षण करना होता है । हम जैसे-जैसे निरीक्षण करेंगे, वैसे-वैसे तथ्यों का पता लगने लगेगा। तथ्यों का निरीक्षण करना बहुत जरूरी है । हम एक कपड़ा हाथ में लें और
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