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चारित्र
चारित्र शब्द के तीन अर्थ हैं - १. आत्मा की अशुद्ध प्रवृत्ति का निरोध । २. आत्मा को शुद्ध दशा में स्थिर रखने का प्रयत्न ३. जिससे कर्म का क्षय होता है, वैसी प्रवृत्ति ।
चारित्र के पांच प्रकार हैं
१. सामायिक चारित्र २. छेदोपस्थाप्य चारित्र ३. परिहार - विशुद्धि चारित्र
सामायिक चारित्र
४.
सूक्ष्म- सम्पराय चारित्र ५. यथाख्यात चारित्र
समभाव में स्थिर रहने के लिये सम्पूर्ण अशुद्ध प्रवृत्तियों का त्याग करना सामायिक चारित्र है | छेदोपस्थाप्य आदि चार चारित्र इसी (सामायिक) के ही विशिष्ट रूप हैं । उनमें आचार और गुण सम्बन्धी कुछ विशेषताएं हैं, अतः उन्हें भिन्न श्रेणी में रखा गया है ।
सामायिक चारित्र सर्व सावद्य योग का त्याग करने से प्राप्त होता है । तीन करण करना, कराना अनुमोदन करना और तीन योग - मन, वचन, काया - से पापयुक्त प्रवृत्ति का त्याग करना सामायिक चारित्र है । इससे अव्रत आश्रव का सम्पूर्णतया निरोध हो जाता है ।
छेदोपस्थाप्य चारित्र
इसका एक अर्थ है-विभागपूर्वक महाव्रतों की उपस्थापना करना । इसका दूसरा अर्थ है - पूर्व पर्याय का छेदन होने पर जो चारित्र प्राप्त होता है, वह चारित्र |
सामायिक चारित्र में सावद्य योग का त्याग सामान्य रूप से होता है । छेदोपस्थाप्य चारित्र में सावद्य योग का त्याग छेद ( विभाग या भेद) पूर्वक होता है ।
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