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शक्ति की श्रेयस् यात्रा और सामायिक
१३३ अनुभव या आत्मा का अनुभव | परानुभव और स्वानुभव- ये दो विरोधी दिशाएं हैं । ये कभी मिलने वाली नहीं हैं । परानुभव भी चलता रहे और स्वानुभव भी होता रहे, यह कभी संभव नहीं है । दो समान्तर रेखाएं हैं परानुभव
और सामायिक साथ-साथ भले ही चले, पर वे परस्पर कभी नहीं मिल सकते । स्थायी कैसे बनें
जब आत्मा का अनुभव जागता है तब व्यक्ति कहता है-“करेमि भंते ! सामाइयं-भगवन् मैं सामायिक करता हूं।" सामायिक करने की भावना तब जागती है जब स्वानुभव का उन्मेष होता है । सामायिक के लिए यह बहुत ही जरूरी है कि उसे सान्निध्य मिले ।
उन्मेष और निमेष-दोनों का क्रम सतत चलता रहता है । तरंगें उठती हैं, तरंगें गिरती हैं । तरंगों का उन्मेष होता है, तरंगों का निमेष होता है । पलकें खुलती हैं, पलकें गिरती हैं । पलकों का उन्मेष होता है, पलकों का निमेष होता है । यह उन्मेष और निमेष का चक्र चलता रहता है।
आत्मिक उन्मेष जगा, किन्तु वह स्थायी कैसे हो, यह महत्त्वपूर्ण बात है । जो ज्योति जली, वह अखंड ज्योति कैसे बने, शाश्वत ज्योति कैसे बने, उसमें निमेष आए ही नहीं, सदा उन्मेष ही रहे, यह कैसे संभव हो सकता है ? इसके लिए सान्निध्य की जरूरत है । इसके लिए मन की शक्तियों का प्रयोग और संकल्प शक्ति जरूरी है ।
सान्निध्य की चाह
सबसे पहली बात है सान्निध्य की। कोई व्यक्ति समता की यात्रा प्रारंभ करता है, यह अनजानी यात्रा है, अज्ञात यात्रा है । यह वह मार्ग है, जिस पर वह पहले कभी चला नहीं है । यह वह दिशा है, जिस दिशा में पैर कभी आगे नहीं बढ़े हैं । सारा अज्ञात ही अज्ञात । अज्ञात मार्ग में, अज्ञात दिशा में सहारा अपेक्षित होता है अन्यथा व्यक्ति भटक जाता है । जहाजों के लिए भी दिशा-निर्देश यंत्र की आवश्यकता होती है, जो दिशा का ठीक निर्देश दे सके । इसी प्रकार इस अज्ञात यात्रा में किसी न किसी ज्ञापक या गमक साधन की जरूरत होती है । जिससे ठीक दिशा का पता लग सके और सही दिशा
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