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तर सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
षट्त्रिंश अध्ययन [५४०
गाथा ७-समय क्षेत्र-जहां समय, आवलिका, पक्ष, मास, वर्ष आदि काल का ज्ञान होता है। जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड तथा अर्ध पुष्कर द्वीप-समय क्षेत्र अथवा मनुष्य क्षेत्र कहलाते हैं। गाथा ९-अपरापरोत्पत्तिरूप प्रवाहात्मक सन्तति की अपेक्षा से काल अनादि अनन्त है। किन्तु
परिमंडल दिन, रात आदि प्रतिनियत व्यक्तिस्वरूप की अपेक्षा सादि सान्त है।
गाथा १०-पुद्गल के स्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाणु चार भेद हैं। मूल पुद्गल द्रव्य परमाणु ही है। उसका दूसरा भाग नहीं होता है, अतः वह निरंश होने से परमाणु कहलाता है। दो
वट्ट परमाणुओं से मिलकर एकत्व परिणतिरूप द्विप्रदेशी स्कन्ध होता है। इसी प्रकार त्रिप्रदेशी आदि से लेकर अनन्तानन्त प्रदेशी स्कन्ध होते है। पुद्गल के अनन्त स्कन्ध हैं। परमाणु स्कन्ध में संलग्न रहता है, तब उसे प्रदेश कहते हैं और जब वह पृथक् अर्थात् अलग रहता है, तब वह परमाणु कहलाता है।
गाथा १३, १४-पुद्गल द्रव्य की स्थिति से अभिप्राय यह है कि जघन्यतः एक समय तथा तंस उत्कृष्टतः असंख्यात काल के बाद स्कन्ध आदि रूप से रहे हुए पुद्गल की संस्थिति में परिवर्तन हो जाता है। स्कन्ध बिखर जाता है, तथा परमाणु भी स्कन्ध में संलग्न होकर प्रदेश का रूप ले लेता
है।
___ अन्तर से अभिप्राय है-पहले के अवगाहित क्षेत्र को छोड़कर पुनः उसी विवक्षित क्षेत्र की अवस्थिति को प्राप्त होने में जो व्यवधान होता है, वह बीच का अन्तर काल।
ਬਦੁੱਲ ___ गाथा १५ से ४६-पुद्गल के असाधारण धर्मों में संस्थान भी एक धर्म है। संस्थान के दो भेद हैं-(१) इत्थंस्थ और (२) अनित्थंस्थ। जिसका त्रिकोण आदि नियत संस्थान हो, वह इत्थंस्थ कहलाता है, और जिसका कोई नियत संस्थान न हो, उसे अनित्यस्थ कहते हैं। इत्थस्थ के पाँच प्रकार हैं-(१) परिमण्डल-चूड़ी की तरह गोल, (२) वृत्त-गेंद की तरह गोल, (३) त्र्यम्न-त्रिकोण, (४) चतुरन-चौकोन, और (५) आयत-बांस या रस्सी की तरह लम्बा। (चित्र देखें)
पुद्गल के वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श आदि इन्द्रियग्राह्य भाव हैं, अतः उनका वर्णन विस्तार से आयत किया गया है। कृष्णादि वर्ण गन्ध आदि से भाज्य होते हैं, तब कृष्णादि प्रत्येक पाँच वर्ण २० भेदों से गुणित होने पर वर्ण पर्याय के कुल १00 भंग होते हैं। इसी प्रकार सुगन्ध के २३ और दुर्गन्ध के २३, दोनों के मिलकर गन्ध पर्याय के ४६ भंग होते हैं। इसी प्रकार प्रत्येक रस के बीस-बीस भेद मिलाकर रस पंचक के संयोगी भंग १00 होते हैं। मृदु आदि प्रत्येक स्पर्श के सतरह-सतरह भेद मिलाकर आठ स्पर्श के १३६ भंग होते हैं। प्रत्येक संस्थान के बीस-बीस भेद मिलाकर संस्थान-पंचक के १00 संयोगी भंग होते हैं। समग्र भंगों की संकलना ४८२ है।
ये सब भंग स्थूल दृष्टि से गिने गए हैं। वस्तुतः तारतम्य की दृष्टि से सिद्धान्ततः देखा जाए तो प्रत्येक के अनन्त भंग होते हैं। __गाथा ४८-सिद्ध होने के बाद सब जीव समान होते हैं। यहाँ पर बताये गये सिद्धों के स्त्रीलिंग और पुरुषलिंग आदि अनेक प्रकार पूर्व जन्मकालीन विभिन्न स्थितियों की अपेक्षा से हैं। वर्तमान में स्वरूपतः सब सिद्ध एक समान हैं। केवल अवगाहना का अन्तर है। अवगाहना का अर्थ शरीर नहीं है। अपितु अरूप आत्मा भी द्रव्य होने से अपनी अमूर्त आकृति तो रखता ही है। द्रव्य आकारशून्य कभी नहीं होता। आत्मा आकाश के जितने प्रदेश क्षेत्रों को अवगाहन करता है, उस अपेक्षा से सिद्धों की अवगाहना है।
गाथा ५६-सिद्ध लोकान में स्थित हैं, इसका अभिप्राय यह है कि उनकी ऊर्ध्वगमन रूप गति वहीं तक है। आगे अलोक में गति हेतुक धर्मास्तिकाय का अभाव होने से गति नहीं है।
गाथा ६४-पूर्व जन्म के अन्तिम देह का जो ऊँचाई का परिमाण होता है उससे त्रिभागहीन (एक तिहाई कम) सिद्धों की अवगाहना होती है। पूर्वावस्था में उत्कृष्ट अवगाहना पाँच सौ धनुष की मानी है, अतः मुक्त अवस्था में शुषिर (शरीर के
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