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________________ ४७३] चतुस्त्रिंश अध्ययन सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र 1 " लेसाहिं सव्वाहिं चरमे समयम्मि परिणयाहिं तु न वि कस्सवि उववाओ, परे भवे अत्थि जीवस्स ॥५९॥ चरम (अन्तिम) समय में परिणत हुई सभी लेश्याओं से भी किसी भी जीव की परभव ( अगले जन्म) में उत्पत्ति नहीं होती ॥ ५९॥ No soul can take birth in next existence in the ending moment of all the tinges. (59) अन्तमुहुत्तम्मि गए, अन्तमुहुत्तम्मि सेसए चेव । साहिं परिणयाहिं, जीवा गच्छन्ति परलोयं ॥ ६० ॥ लेश्याओं के परिणत होने से अन्तर्मुहूर्त व्यतीत हो जाने पर और अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर जीव परलोक ( अगले जन्म) में जाते हैं ॥६०॥ As the tinges enjoined the soul, the half antarmuhurta passed and half is remaining then the souls go to take birth in next life. (60) तम्हा एयाण लेसाणं, अणुभागे वियाणिया । अप्पसत्थाओ वज्जित्ता, पसत्थाओ अहिट्ठेज्जासि ॥ ६१ ॥ -त्ति बेमि । इसलिए (विवेकी व्यक्ति) इन लेश्याओं के अनुभाग (विपाक - रस - विशेष) को जानकर इनमें से अप्रशस्त (कृष्ण, नील, कापोत) लेश्याओं को वर्जित - परित्याग करके प्रशस्त (तेजो, पद्म, शुक्ल) लेश्याओं में अधिष्ठित - स्थिर हो जाए ॥ ६१ ॥ - ऐसा मैं कहता हूँ । Jain Education International Therefore a wise man knowing the fruitions and consequences of these tinges, abandon the inauspicious (black, blue and grey) and be firm in auspicious (red, yellow and white) tinges. (61) -Such I speak. विशेष स्पष्टीकरण गाथा १ - कर्मलेश्या का अर्थ है- कर्मबन्ध के हेतु रागादि भाव। लेश्यायें भाव और द्रव्य के भेद से दो प्रकार की हैं। कुछ आचार्य कषायानुरंजित योग प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं। इस दृष्टि से यह छद्मस्थ व्यक्ति को ही हो सकती हैं। किन्तु शुक्ल लेश्या १३वें गुणस्थानवर्ती केवली को भी है, अयोगी केवली को नहीं । अतः योग की प्रवृत्ति ही लेश्या है। कषाय तो केवल उसमें तीव्रता आदि का संनिवेश करती है। आवश्यक चूर्णि में जिनदास महत्तर ने कहा "लेश्याभिरात्मनि कर्माणि संश्लिष्यन्ते । योगपरिणामो लेश्या । जम्हा अयोगिकेवली अलेस्सो ।” गाथा ११- त्रिकटुक से अभिप्राय सूंठ, मिरच और पिप्पल के एक संयुक्त योग से है। गाथा २० - जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट के भेद से सर्वप्रथम लेश्या के तीन प्रकार हैं। जघन्य आदि तीनों के फिर जघन्य, मध्यम उत्कृष्ट के भेद से तीन-तीन प्रकार होने से नौ भेद होते हैं। फिर इसी प्रकार क्रम से त्रिक की गुणन प्रक्रिया से २७, ८१ और २४३ भेद होते हैं। यह एक संख्या की वृद्धि का स्थूल प्रकार है। वैसे तारतम्य की दृष्टि से संख्या का नियम नहीं है। स्वयं उक्त अध्ययन (गा. ३३) में प्रकर्षापकर्ष की दृष्टि से लोकाकाश प्रदेशों के परिमाण के अनुसार असंख्य स्थान बताये हैं। अशुभ लेश्याओं के संक्लेरूप परिणाम हैं, और शुभ के विशुद्ध परिणाम है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002912
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year
Total Pages652
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_uttaradhyayan
File Size21 MB
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