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सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
द्वात्रिंश अध्ययन [४१८
बत्तीसवाँ अध्ययन : प्रमादस्थान
पूर्वालोक
प्रस्तुत अध्ययन का नाम 'प्रमाद स्थान' है। इसमें साधक की साधना के प्रमुख विघ्न प्रमाद के कारणों का वर्णन करके साधक को उनसे दूर रहने की-निवारण की प्रेरणा दी गई है।
प्रमाद के भेद-प्रभेद अनेक प्रकार से बताये गये हैं
प्रमाद के प्रमुख भेद ५ हैं-(१) मद्य (मद) (२) विषय, (३) कषाय (४) विकथा और (५) निद्रा-निन्दा अथवा निद्रा। इन्हीं के पन्द्रह अवान्तर भेद हो जाते हैं; क्योंकि विषय (इन्द्रियविषय) ५ प्रकार के हैं, कषाय
और विकथा-दोनों के चार-चार भेद हैं। ____ अन्य अपेक्षा से प्रमाद के ८ भेद भी बताये गये हैं-(१) अज्ञान (२) संशय (३) मिथ्याज्ञान (४) राग (५) द्वेष (६) स्मृतिभ्रंश (७) धर्म के प्रति अनादर और (८) मन-वचन-काया का दुष्प्रणिधान। (प्रवचनसारोद्धार द्वार २०७, गाथा १२२-२३) ___ सामान्य शब्दों में प्रमाद का अभिप्राय है-अजागृति, असावधानी, आलस्य, अविवेक, आत्म-लक्ष्य के प्रति स्मृति न रहना (Negligence) आदि। ___ यह सत्य है कि संयम यात्रा के लिए साधक को भी कुछ अपरिहार्य साधनों की आवश्यकता होती है। साधनों के बिना उसका जीवन यापन संभव ही नहीं है। ____ लेकिन साधन अपने-आप में न शुभ हैं, न अशुभ; न अच्छे हैं, न बुरे। उनकी शुभता-अशुभता उपयोक्ता
के भाव, मनोदशाएँ, वृत्ति-प्रवृत्तियाँ, राग-द्वेष आदि निर्धारित करते हैं। ___भोजन शरीर-रक्षा के लिए अत्यावश्यक है। किन्तु यदि भोजन सिर्फ भोजन के लिए किया जाय, स्वादिष्ट पकवानों को अधिक मात्रा में खा लिया जाय तो वही भोजन उदर-व्याधियों और अनेक रोगों का कारण बनकर साधना में विघ्न बन जाता है। . शयन और आसन भी साधक के लिए आवश्यक हैं, किन्तु यदि वे स्त्री-नपुंसक से संसक्त हों तो काम विकार वर्द्धक बन जाते हैं, साधक अपने मन पर नियन्त्रण न रख पायेगा और उसकी साधना में विघ्न खड़ा हो जायेगा।
यही बात अन्य साधनों के विषय में भी सत्य है। ___ साधक का कर्तव्य है, साधनों को मात्र साधन समझे और इसी दृष्टि से उनका उपयोग करे, उनके प्रति मोह-ममत्व-मूर्छा के भाव मन में न आने दे। ___ राग-द्वेष, आसक्ति, मिथ्या-दर्शन, मोहादि का त्याग संसार के दुःखों से मुक्ति और एकान्त आत्मिक सुख की प्राप्ति के लिए अनिवार्य है।
प्रमाद में शिष्यैषणा भी सम्मिलित है। अपने शरीर की सेवा तथा सुख-सुविधा के लिए साधक को शिष्य बनाना उचित नहीं है। यद्यपि साधक को सहायक की आवश्यकता होती है, वह सहायक साथी मुनि भी हो सकता है और शिष्य भी। लेकिन आवश्यक है कि वह धर्म में प्रवीण और साधना में सहायक हो। यदि ऐसा सहायक न मिले तो साधक ज्ञान-दर्शन-चारित्र से युक्त होकर एकाकी विचरण करे।
प्रमाद-स्थानों से बचकर वीतराग के मार्ग पर चलना चाहिए। वीतरागी साधक ही मुक्ति प्राप्त करता है। प्रस्तुत अध्ययन में १११ गाथाएँ हैं।
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