SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 491
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८९] त्रिंश अध्ययन सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र । तीसवाँ अध्ययन : तपोमार्गगति | पूर्वालोक प्रस्तुत अध्ययन का नाम तपोमार्ग गति है। इस अध्ययन का वर्ण्यविषय है-तप के मार्ग की ओर गतिपुरुषार्थ करना। तप कर्मनिर्जरा, आत्मविशुद्धि और मोक्ष प्राप्ति का अमोघ साधन है। यह एक ऐसा विशिष्ट रसायन है जो शरीर और आत्मा के एकात्मभाव-देहासक्ति को समाप्त कर आत्मा को अपने निज स्वभाव में स्थापित करता है, उसके स्वभाव को प्रगट करता है। कर्म-मल को तपाकर आत्मा को विशुद्ध करता है। __ लेकिन यह आवश्यक है कि तप, मात्र तप होना चाहिए, इसका ध्येय कर्म-निर्जरा और आत्म-विशुद्धि होना आवश्यक है। यही सम्यक् तप है। इसके विपरीत यदि तप के साथ सांसारिक विषय-भोगों की इच्छा, नामना, कामना, प्रसिद्धि, यश आदि का संयोग हो गया तो वह मिथ्यातप अथवा बाल-तप हो जाता है, जो देह दण्ड से अधिक कुछ नहीं होता। ऐसा तप, ‘तप' न रहकर 'ताप' बन जाता है, जो आत्मा के संताप का ही कारण बनता है। ऐसा तप कर्मों को नहीं तपाता अपितु आत्मा को ही तपाता है, चतुर्गतिक संसार में आत्मा के भ्रमण का हेतु बनता है। अतः आत्महित की दृष्टि से तप सम्यक् ही होना चाहिए। पिछले २८वें अध्ययन में मोक्ष प्राप्ति के चार कारण बताये थे, उनमें तप अन्तिम और अमोघ साधन है। किन्तु वहाँ तपों का नामोल्लेख मात्र किया गया था, जबकि इस अध्ययन में विस्तृत विवेचन किया गया तप के प्रमुख दो भेद हैं-(१) बाह्य और (२) आभ्यन्तर। पुनः प्रत्येक के छह-छह भेद किये गये हैं। बाह्य तप के भेद हैं-(१) अनशन (२) अवमौदर्य (ऊनोदरी) (३) रस-परित्याग (४) भिक्षाचर्या (वृत्ति परिसंख्यान) (५) कायक्लेश और (६) प्रतिसंलीनता। अनशन आदि के अवान्तर भेद भी अनेक हैं। बाह्य तप का सबसे बड़ा लाभ यह है कि इनके आचरण से देहासक्ति, स्वाद-लोलुपता, खान-पान की लालसा, सुखसीलियापन आदि छूट जाते हैं। लेकिन बाह्य तपों के लिए आवश्यक है कि वे आभ्यन्तर तपों के सहायक बनें। आभ्यन्तर तप हैं-(१) प्रायश्चित्त (२) विनय (३) वैयावृत्त्य (४) स्वाध्याय (५) ध्यान और (६) व्युत्सर्ग। प्रायश्चित्त से दोषों का परिमार्जन, विनय से नम्रता, वैयावृत्त्य से सेवाभाव, स्वाध्याय से ज्ञानोपार्जन, ध्यान से एकाग्रचित्तता और व्युत्सर्ग से ममत्व त्याग-इन तपों के ये विशिष्ट लाभ हैं और सबसे बड़ा लाभ है-मुक्ति प्राप्ति। यह सम्पूर्ण विषय प्रस्तुत अध्ययन में विस्तार से विवेचित किया गया है। प्रस्तुत अध्ययन में ३७ गाथाएँ हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainlibrilry.org
SR No.002912
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year
Total Pages652
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_uttaradhyayan
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy