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________________ सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र क्रिया - वेग) से एक समय में लोकाग्र में जाकर साकारोपयोग (ज्ञानोपयोग अथवा अपने शरीर की अवगाहना के २/३ - दो तिहाई परिमाण आकाश प्रदेशों में) ज्ञानोपयोग से सिद्ध होता है, बुद्ध होता है, मुक्त होता है, परिनिर्वाण को प्राप्त होता है और सभी दुःखों का अन्त करता है। यह निश्चय रूप से सम्यक्त्व पराक्रम अध्ययन का अर्थ श्रमण भगवान महावीर ने आख्यायितप्रतिपादित किया है, प्रज्ञापित किया है, प्ररूपित किया है, दिखलाया है, दृष्टान्त के द्वारा वर्णित किया है, उपदेश दिया है। - ऐसा मैं कहता हूँ । एकोनत्रिंश अध्ययन [ ३८६ Maxim 74. Then that (the omniscient soul) quitting by all methods and for ever this gross, electric (lightening) and Karmana - all the kinds of bodies, takes straight line, touches nothing, goes upward, without any curve, taking no space, with the fastest velocity of motion reaching the uppermost region of world (loka) with form-conscience (knowledge conscience or in the two-third space-points of the quitted body) or knowledge-conscience he obtains perfection, enlightenment, deliverance and final beatitude; and exhaustively ends all the miseries and sufferings. Definitely such indeed meaning of this chapter, entitled 'Exertion in Right Faith' which Śramana Bhagawana Mahavira has delivered, told, declared, explained, proved and -Such I speak. demonstrated well. विशेष स्पष्टीकरण सूत्र ७ - में “करणगुणश्रेणिं” एक आध्यात्मिक विकास का दिग्दर्शक शब्द हैं। अपूर्वकरण से होने वाली गुणहेतुक कर्मनिर्जरा की श्रेणि को "करण गुण श्रेणि" कहते हैं। करण का अर्थ आत्मा का विशुद्ध परिणाम है। अध्यात्म विकास की आठवीं भूमिका (गुणस्थान) का नाम अपूर्वकरण गुणस्थान है। यहाँ परिणामों की धारा इतनी विशुद्ध होती है, जो पहले कभी नहीं होने के कारण अपूर्व कहलाती है। आगामी क्षणों में उदित होने वाले मोहनीय कर्म के अनन्त प्रदेशी दलिकों को उदयकालीन प्राथमिक क्षण में लाकर क्षय कर देना, भाव विशुद्धि की एक आध्यात्मिक प्रक्रिया है। प्रथम समय से दूसरे क्षण असंख्यात गुण अधिक कर्मपुद्गलों का क्षय होता है, दूसरे से तीसरे में असंख्यात गुण अधिक और तीसरे से चौथे में असंख्यात गुण अधिक। इस प्रकार कर्मनिर्जरा की यह तीव्रगति प्रत्येक समय से अगले समय में असंख्यात गुण अधिक होती. जाती है, और यह कर्मनिर्जरा की धारा असंख्यात समयात्मक एक मुहूर्त तक चलती है। इसे क्षपक श्रेणी भी कहते हैं। क्षपक श्रेणी आठवे गुणस्थान से प्रारम्भ होती है। मोहनाश की दो प्रक्रियायें हैं। जिसमें मोह का क्रम से उपशम होते-होते अन्त में वह सर्वथा उपशान्त हो जाता है, अन्तर्मुहूर्त के लिये उसका उदय में आना बंद हो जाता है, उसे उपशम श्रेणि कहते हैं। और जिसमें मोह क्षीण होते-होते अन्त में सर्वथा क्षीण हो जाता है, मोह का एक दलिक भी आत्मा पर शेष नहीं रहता, वह क्षपकश्रेणि है। क्षपक श्रेणी से ही कैवल्य प्राप्त होता है। संक्षेप में आठवें गुणस्थान से जो क्षपक श्रेणि प्राप्त होती है, उसे ही लक्ष्य करके करण गुण श्रेणि कहा है। सूत्र १५ - एक, दो या तीन श्लोक से होने वाली गुणकीर्तना स्तुति होती है और तीन से अधिक श्लोकों वाली स्तुति का स्तव कहते हैं। वैसे दोनों का भावार्थ एक ही है-भक्तिपूर्वक गुणकीर्तन । Jain Education International सूत्र ७१ - कषाय भाव में ही कर्म का स्थितिबन्ध होता है। केवल मन, वचन, काय के कषायरहित व्यापार रूप योग से तो दीवार पर लगे सूखे गोले की तरह ज्योंही कर्म लगता है, लगते ही झड़ जाता है। क्योंकि उसमें राग द्वेषजन्य स्निग्धा नहीं है । केवलज्ञानी को भी जब तक वह सयोगी रहते हैं, चलते-फिरते, उठते-बैठते हर क्षण योगनिमित्तक दो समय की स्थिति का सुखस्पर्शरूप कर्म बँधता रहता है। अयोगी होने पर वह भी नहीं। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002912
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year
Total Pages652
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_uttaradhyayan
File Size21 MB
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