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३७९] एकोनत्रिंश अध्ययन ।
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र ,
understands the various types of modes of knowledge. Thereby he purifies his right faith and annihilates wrong faith.
सूत्र ५८-वयसमाहारणयाए णं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ?
वयसमाहारणयाए णं वयसाहारणदसणपज्जवे विसोहेइ । वयसाहारणदंसणपज्जवे विसोहेत्ता सुलहबोहियत्तं निव्वत्तेइ, दुल्लहबोहियत्तं निजरेइ ॥
सूत्र ५८-(प्रश्न) भगवन् ! वचन (वाक्) समाधारणता से जीव को क्या प्राप्त होता है?
(उत्तर) वचन समाधारणता (वाणी को सम्यक् प्रकार से सतत स्वाधाय में लगाये रखना) से जीव वाणी के विषयभूत साधारण दर्शन (सम्यक्त्व) पर्यवों को विशुद्ध करता है। वाणी के विषयभूत (कथन योग्य) साधारण दर्शन (सम्यक्त्व) पर्यवों को विशुद्ध करके वह सुलभबोधिता को प्राप्त करता है और दुर्लभबोधिता की निर्जरा करता है।
Maxim 58. (Q). Bhagawan ! What does the soul acquire by speech-discipline ?
(A). By speech-discipline (continuously engage the speech in study of scriptures), the soul purifies the modifications of faith. Thereby purifying the modifications of right faith, which can be told by language he attains enlightenment and annihilates non-enlightenment.
सूत्र ५९-कायसमाहारणयाए णं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ?
कायसमाहारणयाए णं चरित्तपज्जवे विसोहेइ । चरित्तपज्जवे विसोहेत्ता अहक्खायचरितं विसोहेइ । अहक्खायचरित्तं विसोहेत्ता चत्तारि केवलिकम्मंसे खवेइ । तओ पच्छा सिज्झइ, बुज्झइ, मुच्चइ, परिनिव्वाएइ, सव्वदुक्खाणमन्तं करेइ ॥
सूत्र ५९-(प्रश्न) भगवन् ! काय समाधारणता से जीव को क्या प्राप्त होता है?
(उत्तर) काय समाधारणता (संयम की शुभ प्रवृत्तियों में काया को भली-भाँति संलग्न रखना) से जीव चारित्र के पर्यवों (विविध प्रकारों) को विशुद्ध करता है। चारित्र के पर्यवों को विशुद्ध करके यथाख्यात चारित्र को विशुद्ध करता है। यथाख्यात चारित्र को विशुद्ध करके केवली कांशों-वेदनीय आदि कर्मों का क्षय करता है। तत्पश्चात सिद्ध होता है, बुद्ध होता है, मुक्त होता है, परिनिर्वाण को प्राप्त होता है, सभी दुःखों का अन्त करता है।
Maxim 59. (Q). Bhagawan ! What does the soul acquire by body-discipline ?
(A). By body-discipline (to engage the body properly in auspicious tendencies of restrain), the soul purifies the different modification of conduct. Purifying the conductmodifications, he purifies yathākhyāta conduct (the conduct of passion-free monks and arihantas) and then destructs the remnants of karmas lingering to Kevalins-like emotion evoking karma etc. After that he becomes emancipated, enlightened, perfected, deliberated; and ends all miseries.
सूत्र ६०-नाणसंपन्नयाए णं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ?
नाणसंपन्नयाए णं जीवे सव्वभावाहिगमं जणयइ । नाणसंपन्ने णं जीवे चाउरन्ते संसारकन्तारे न विणस्सइ ॥
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