________________
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
षड्विंश अध्ययन [३२८
प्रथम पहर में स्वाध्याय, दूसरे में ध्यान करे, तीसरे प्रहर में निद्रा ले और चौथे प्रहर में पुनः स्वाध्याय करे ॥१८॥ Study in first prahara, in second meditation, third for sleep and in fourth study again. (18)
जं नेइ जया रत्तिं, नक्खत्तं तंमि नहचउब्भाए ।
संपत्ते विरमेज्जा, सज्झायं पओसकालम्मि ॥१९॥ जो नक्षत्र जिस रात्रि की पूर्ति करता हो, वह जब आकाश के प्रथम चतुर्थ भाग में आ जाता है यानी रात्रि का प्रथम प्रहर समाप्त होता है तब वह प्रदोषकाल होता है, उस काल में स्वाध्याय से निवृत्त हो जाय ॥१९॥
The naksatra (star) that leads the night when has it reached the first quarter of sky-meaning the end of first prahara of the night then it becomes the pradosa period, in this time finish the study. (19)
तम्मेव य नक्खत्ते, गयणचउब्भागसावसेसंमि ।
वेरत्तियं पि कालं, पडिलेहित्ता मुणी कुज्जा ॥२०॥ वही नक्षत्र जब आकाश के अन्तिम चतुर्थ भाग में आ जाता है-रात्रि का अन्तिम चतुर्थ प्रहर प्रारम्भ हो जाता है तब उसे वैरात्रिक काल समझ कर मुनि स्वाध्याय आदि आवश्यक क्रियाओं में प्रवृत्त हो जाय ॥२०॥
When the same nak satra reaches the last quarter of sky, last prahara of night begins, knowing that vairātrika period monk, should begin to practise the necessary activities like study etc. (20)
पुव्विल्लंमि चउब्भाए, पडिलेहित्ताण भण्डयं ।
गुरुं वन्दित्तु सज्झायं, कुज्जा दुक्खविमोक्खणं ॥२१॥ विशेष दिनकृत्य ___ दिन के प्रथम प्रहर के प्रथम चतुर्थ भाग में भण्डोपकरणों की प्रतिलेखना करे, तदुपरान्त गुरु को वन्दना करके सभी दुःखों से मुक्त कराने वाला स्वाध्याय करे ॥२१॥
In the first quarter of first prahara of day he should inspect the things he holds, then bowing down to the teacher should study which is the cause of ending all calamities. (21)
पोरिसीए चउब्भाए, वन्दित्ताण तओ गुरुं ।
अपडिक्कमित्ता कालस्स. भायणं पडिलेहए ॥२२॥ तदनन्तर प्रथम पौरुषी का चतुर्थ भाग शेष रहे यानी पौन ३/४ पौरुषी व्यतीत हो जाय तव गुरु को वन्दन करके और काल का प्रतिक्रमण (कायोत्सर्ग) किये बिना ही पात्र (भाजन) आदि की प्रतिलेखना करे ॥२२॥
After that in the last quarter of first paurusi then bowing down to teachers, inspect the utensils etc., without exculpation of time. (22)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org