SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 422
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र षड्विंश अध्ययन [३२२ | छब्बीसवाँ अध्ययन : सामाचारी-सामायारी पूर्वालोक प्रस्तुत अध्ययन का नाम सामाचारी है। सामाचारी का अर्थ होता है-'सम्यक् आचार व्यवस्था' अर्थात् साधु के समस्त आचार, पारस्परिक कर्त्तव्य और व्यवहार। इनसे संबंधित नियमोपनियमों का-व्यवस्थाओं का प्रस्तुत अध्ययन में वर्णन हुआ है। ___ संघ को सुव्यवस्थित रखने के लिए समुचित व्यवहार होना आवश्यक है। न तो दूसरों के प्रति उदासीनता, रूक्षता, उपेक्षा, अनुत्तरदायिता ही होनी चाहिए और न अत्यधिक आसक्ति ही। किसी के प्रति लगाव और किसी के प्रति लापरवाही भी विखण्डन का कारण बन सकती है। उच्छृखलता, निष्प्रयोजन आवागमन, हठाग्रह आदि भी संघ व्यवस्था को विशृंखलित करते हैं। इन्हीं कारणों से श्रमण के आचार के दो रूप बताये गये हैं-प्रतात्मक आचार और व्यवहारात्मक आचार। सामाचारी के भी दो प्रकार हैं-(१) ओघसामाचारी (२) पद-विभाग सामाचारी। प्रस्तुत अध्ययन में दोनों प्रकार की सामाचारी का वर्णन है। सामाचारी के दस भेद हैं-(१) आवश्यकी (२) नैषेधिकी (३) आपृच्छना (४) प्रतिपृच्छना (५) छन्दना (६) इच्छाकार (७) मिथ्याकार (८) तथाकार (९) अभ्युत्थान और (१०) उपसम्पदा। इसे आसेवना-शिक्षा भी कहते हैं। इन सभी का सर्वांगपूर्ण वर्णन प्रस्तुत अध्ययन में किया गया है। तदुपरान्त दिन और रात की औत्सर्गिक चर्या का वर्णन है। दिन और रात्रि के आठ प्रहर होते हैं। दिन के चार प्रहर और रात्रि के भी चार प्रहर। दिन के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, दूसरे में ध्यान, तीसरे में भिक्षाचर्या और चौथे में स्वाध्याय। इसी प्रकार रात्रि के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, दूसरे में ध्यान, तीसरे में शयन-निद्रा और चौथे में स्वाध्याय। ___ इस प्रकार दिन-रात के आठ प्रहरों में चार प्रहर स्वाध्याय के लिए, दो प्रहर ध्यान के लिए, एक प्रहर भिक्षाचर्या आदि शारीरिक कार्यों के लिए तथा एक प्रहर निद्रा के लिए नियत है। ___ सामाचारी की यह विशेषता है कि यह सामाजिक तथा पारिवारिक बंधनों के समान नहीं है अपितु इसका स्वेच्छया स्वीकरण होता है। यह तो अन्तर्हृदय का वह उत्स है जो सहजतया प्रवाहित होकर साधकजीवन की आध्यात्मिक प्रगति में सहायक बनता है। साथ ही उसकी व्यवहार कुशलता भी बढ़ाता है। साधक के जीवन को संपूर्णता, सरलता, सहजता प्रदान करता है। प्रस्तुत अध्ययन में ५३ गाथाएँ हैं। Jain Elicain International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002912
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year
Total Pages652
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_uttaradhyayan
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy