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________________ सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र इसी तरह जो मनुष्य दुर्बुद्धि हैं और काम-भोगों की लालसा से युक्त हैं वे विषयों में चिपक जाते हैं। तथा जो काम - भोगों से विरक्त हैं वे सूखे गोले के समान नहीं चिपकते ॥ ४३ ॥ पंचविंश अध्ययन [ ३२० In the same way, fools addict and stick to world; and who are indifferent do not stick like a dry clod. (43) अन्तिए । एवं से विजयघोसे, जयघोसस्स अणगारस्स निक्खन्तो, धम्मं सोच्चा अणुत्तरं ॥४४॥ इस प्रकार विजयघोष ब्राह्मण जयघोष अनगार से अनुत्तर धर्म को सुनकर दीक्षित हो गया ॥ ४४ ॥ Thus Brāhamana Vijayaghosa hearing the supreme religion from sage Jayaghosa became consecrated. (44) खवित्ता पुव्वकम्माई, संजमेण तवेण य । जयघोस - विजयघोसा, सिद्धिं पत्ता अणुत्तरं ॥ ४५ ॥ -त्ति बेमि । जयघोष और विजयघोष - दोनों ने तप और संयम के द्वारा पूर्वसंचित कर्मों को सर्वथा क्षय करके सिद्धि प्राप्त की ||४५ ॥ - ऐसा मैं कहता हूँ 1 Exhausting all the karmas by self-control and austerities both Jayaghosa and Vijayaghosa obtained liberation. ( 45 ) -Such I speak. विशेष स्पष्टीकरण गाथा १६ - पूछे गये चार प्रश्नों के उत्तर इस प्रकार हैं (१) वेदों का मुख अर्थात् प्रधान तत्व सारभूत क्या है? इसका उत्तर जयघोष ने दिया है-अग्निहोत्र है। अग्निहोत्र का हवन आदि प्रचलित अर्थ तो विजयघोष जानता ही था । किन्तु वह जयघोष मुनि से मालूम करना चाहता था, कि उनके मत में अग्निहोत्र क्या ? मुनि का अग्निहोत्र एक अध्यात्म भाव है, जिसमें तप, संयम, स्वाध्याय, धृति, सत्य और अहिंसा आदि दस प्रकार के मुनिधर्म का समावेश होता है। यह 'भाव अग्निहोत्र' ही जयघोष मुनि ने विजयघोष को समझाया है। इसी अग्निहोत्र ( आत्म-यज्ञ ) में मन के विकार स्वाहा होते हैं। (२) दूसरा प्रश्न है - यज्ञ का मुख उपाय ( प्रवृत्ति हेतु ) क्या है ? इसके उत्तर में यज्ञ का मुख अर्थात् उपाय यज्ञार्थी बताया है। मुनि ने आत्मयज्ञ के सन्दर्भ में अपने बहिर्मुख इन्द्रिय और मन को असंयम से हटाकर संयम में केन्द्रित करने वाले आत्मसाधक को ही सच्चा यज्ञार्थी ( याजक) बताया है। Jain Education International (३) तीसरा प्रश्न कालज्ञान से सम्बन्धित है। स्वाध्याय आदि समयोचित कर्त्तव्य के लिये काल का ज्ञान उस समय में आवश्यक था। और वह ज्ञान स्पष्टतः नक्षत्रों की गति गणना से होता था । चन्द्र की हानि - वृद्धि से तिथियों का बोध अच्छी तरह हो जाता था। इस दृष्टि से ही मुनि ने उत्तर दिया है कि नक्षत्रों में मुख्य चन्द्रमा है। इस उत्तर की तुलना गीता (१०/२१ ) से की जा सकती है- " नक्षत्राणामहं शशी । " (४) चौथा प्रश्न था-धर्मों का मुख अर्थात् उपाय (आदि कारण ) क्या है ? धर्म का प्रकाश किससे हुआ ? उत्तर में जयघोष मुनि ने कहा है- धर्मों का मुख ( आदि कारण ) काश्यप है। वर्तमान कालचक्र में आदि काश्यप ऋषभदेव ही धर्म के For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002912
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year
Total Pages652
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_uttaradhyayan
File Size21 MB
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