________________
१७५] पञ्चदश अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
पनरसम अज्झयणं : सभिक्खुयं || पञ्चदश अध्ययन : सभिक्षक
मोणं चरिस्सामि समिच्च धम्मं, सहिए उज्जुकडे नियाणछिन्ने ।
संथवं जहिज्ज अकामकामे, अन्नायएसी परिव्वए जे स भिक्खू ॥१॥ 'धर्म को स्वीकार करके मुनिव्रतों का पालन करूँगा', इस संकल्प के साथ जो अन्य साधुओं के (तथा ज्ञान-दर्शन-चारित्र से युक्त) साथ रहता है, सरल भाव से क्रिया करता है, निदान-विषय-वासनाओं की इच्छा जिसने त्याग दी है, पूर्व सांसारिक संबंधियों से परिचय का त्याग करता है, काम-भोगों की इच्छा नहीं करता, अपनी जाति, कुल आदि का परिचय न बताकर अज्ञात कुलों में निर्दोष भिक्षा की गवेषणा करता है
और अप्रतिबद्ध विहार करता है; वह भिक्षु है ॥१॥ ___ 'Accepting the religious life I will practise the monk-order-the full vows of a monk' with this solemn resolve who lives with other sages (and having firm belief in right knowledge-faith-conduct) acts sincerely, renounces the desire of volition-covetuousness, abandons the acquaintance of worldly and domestic relatives, has no wish for sensual pleasures, seeks for faultless asking, without giving introduction of own caste and clan, from unknown families and wanders unobstructed, he is a true mendicant. (1)
रागोवरयं चरेज्ज लाढे, विरए वेयवियाऽऽयरक्खिए ।
पन्ने अभिभूय सव्वदंसी, जे कम्हिंचि न मुच्छिए स भिक्खू ॥२॥ जो राग से उपरत है, (रात्रि भोजन का त्यागी है) सम्यक् रूप से साध्वाचार का पालन करता है, असंयम से विरत है, शास्त्रों का ज्ञाता है, आत्म-रक्षा के लिए तत्पर है, प्राज्ञ है, परीषहों तथा राग-द्वेष का विजेता है, सभी प्राणियों को अपने समान समझता है, किसी भी वस्तु में आसक्त नहीं होता; वह भिक्षु है ॥२॥ ___Who is disinterested to attachment (renouncer of night eating), practises the sageconduct as prescribed, disinclined towards unrestrain, well-versed in scriptures, ready for soul (self) protection, wise and witty, victor of troubles and attachment-detachment, believes that all living beings are as (equal to) me, does not indulge in anything; he is a true mendicant. (2)
अक्कोसवहं विइत्तु धीरे, मुणी चरे लाढे निच्चमायगुत्ते ।
अव्वग्गमणे असंपहिछे, जे कसिणं अहियासए स भिक्खू ॥३॥ जो धीर मुनि आक्रोश-कठोर वचन एवं वध-ताडना-तर्जना को अपने पूर्वकृत कर्मों का फल जानकर संयम में प्रसन्न रहता है. असंयमस्थानों-आसवों से अपनी आत्मा को गप्त-रक्षित रखता है, जो आकलता और हर्षातिरेक नहीं करता और समभाव से सब कुछ सहता है; वह भिक्षु है ॥३॥
The steadfast monk, knowing the consequences of his own former deeds,the harsh words and beating etc., remains delightful in restrain, protects his own soul from inflow of
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.nerary.org