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________________ १७३ ] पञ्चदश अध्ययन सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र पन्द्रहवाँ अध्ययन : सभिक्षुक पूर्वालोक प्रस्तुत अध्ययन का शीर्षक सभिक्षुक है। इसके दो कारण हैं; प्रथम- इसकी प्रत्येक गाथा के अन्त में 'स भिक्षु' (भिक्खु) शब्द का प्रयोग हुआ है। दूसरा, इसमें सद्भिक्षु के गुणों, लक्षणों और जीवन-चर्या का विवेचन है। पिछले इषुकारीय अध्ययन में छह व्यक्ति भिक्षा-जीवी अनगार बने थे । भिक्षु के गुण, लक्षणों का वर्णन प्रस्तुत अध्ययन में किया गया है। भिक्षु शब्द का यहाँ विशेष आशय है। यहाँ सद्भिक्षु ही विविक्षित है; भिक्षा ग्रहण करता है, स्वयं अपनी संयम यात्रा तो चलाता ही है, दाता का यह तो तथ्य है कि कंचन - कामिनी के त्यागी और घर बार छोड़कर तपस्या करने वाले साधु को भी अपने शरीर रक्षार्थ कुछ अत्यावश्यक साधनों की आवश्यकता होती ही है और वे सब याचना द्वारा सद्गृहस्थों से ही वह प्राप्त करता है। इस याचना में कई बार उसे तिरस्कार भी सहना पड़ता है, शीत-उष्ण, शैया - निषद्या आदि परीषह भी सहने पड़ते हैं; पर वह खिन्न नहीं होता । Jain Education International ऐसा भिक्षु जो सर्वसम्पत्करी अपने आप हित होता है। सद्भिक्षु अपनी जीवन-चर्या को निर्दोष रखता है, माया, निदान से दूर रहता है, सांसारिक जनों से अधिक परिचय नहीं रखता, रात्रि भोजन नहीं करता, अज्ञात अपरिचित घरों में ही भिक्षा की गवेषणा करता है, किसी भी मनोज्ञ सचित्त अथवा अचित्त वस्तु में गृद्ध नहीं होता; सिर्फ आत्मोत्थान ही उसका लक्ष्य रहता है। इस अध्ययन में निर्दोष भिक्षाजीवी, संयम यात्रा के पथिक सद्भिक्षु के लक्षण और जीवन-चर्या का संक्षेप में विवेचन कर दिया गया है। प्रस्तुत अध्ययन में १६ गाथाएँ हैं । 卐 For Private & Personal Use Only www.ainelibrary.org
SR No.002912
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year
Total Pages652
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_uttaradhyayan
File Size21 MB
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