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१४३ ] त्रयोदश अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
चक्रवर्ती ने पूछा- क्या यह पाद - पूर्ति तुमने की है ?
अरघट चालक ने बताया- महाराज ! मैं इतना विद्वान कहाँ हूँ। उद्यान में एक मुनि आज ही आये हैं। उन्होंने ही इस पंक्ति की रचना की है।
सच्चाई जानकर चक्रवर्ती स्वयं उद्यान में आया। अपने पूर्वजन्मों के भाई चित्र मुनि से मिला, उनकी और फिर वार्तालाप करने लगा।
वन्दना
उनका वार्तालाप मूल अध्ययन में वर्णित है ही ।
पूर्वजन्मों के स्नेह के कारण चित्र मुनि ने ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती को संयम ग्रहण करने की बहुत प्रेरणा दी। यहाँ तक कहा कि यदि तू संयम का पालन नहीं कर सकता तो कम से कम आर्यकर्म तो कर जिससे अगले जन्म में महर्द्धिक देव बन सके।
लेकिन ब्रह्मदत्त पर कोई प्रभाव न पड़ा। उसने अंत में कह दिया- मेरी दशा दलदल में फँसे उस हाथी जैसी है जो तट को देखता तो है किन्तु वहाँ पहुँच नहीं सकता।
आखिर चित्र मुनि वहाँ से यह कहकर चले जाते हैं कि राजन् ! मैंने तुम्हें समझाने में व्यर्थ ही समय नष्ट किया।
चित्र मुनि ने उत्कृष्ट साधना की और अनुत्तर सिद्ध पद प्राप्त किया। इसके विपरीत कामभोग में फँसा ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती लोक के निकृष्टतम स्थान सातवीं नरक में पहुँचा ।
नाम आदि के परिवर्तनों के साथ यही प्रसंग बौद्ध ग्रन्थों में भी प्राप्त होता है।
इस अध्ययन की प्रमुख विशेषता है - निदान ( काम - भोगों की तीव्र इच्छा) की विवशता । काम-भोग ही आत्मा के लिए सबसे बड़े बंधन हैं। इनकी आसक्ति के कारण ही जीव दुर्गति में जाकर दुःख भोगता है।
इसके विपरीत भोगेच्छाओं से उपरत रहने वाला व्यक्ति, चाहे वह सांसारिक दृष्टि से अभावग्रस्त ही क्यों न हो, सुखी रहता है। और अकिंचन श्रमण तो सर्वश्रेष्ठ आत्मिक सुख की उपलब्धि कर लेते हैं। उन्हें शाश्वत, अव्याबाद्य मुक्तिसुख प्राप्त हो जाता है ।
इस अध्ययन में इच्छाओं की दासता से दुःख और इच्छाओं के स्वामी बनने से सुख - प्राप्ति का स्वर प्रभावशाली ढंग से प्रतिष्ठापित हुआ है।
प्रस्तुत अध्ययन में ३५ गाथाएँ हैं।
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