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सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
लेकिन सहनशक्ति की भी एक सीमा होती है। अत्याचारी के अत्याचार जब सीमा से बढ़ जाते शीतल चन्दन भी आग उगलने लगता है। निर्मम पिटाई से संभूत मुनि का हृदय भी अशांत हो लब्धवंत तो थे ही, तेजोलेश्या प्रगट करके मुख खोल दिया। उनके मुख से तेज धूँआ निकलने लगा। कुछ ही क्षणों में धूंआ सम्पूर्ण हस्तिनापुर नगर के आकाश में छा गया। लोग भयभीत हो गये। स्वयं चक्रवर्ती भी चकित और भयभीत हुआ। अपनी पटरानी सुनन्दा के साथ आया और संभूत मुनि से क्रोध को शांत करने की प्रार्थना करने लगा, जनता तो प्रार्थना कर रही थी । चित्र मुनि भी आगये, उन्होंने संभूत मुनि को समझाया। उनके समझाने से संभूत मुनि का क्रोध उपशान्त हुआ । उन्होंने अपनी तेजोलेश्या समेट ली । नगर की रक्षा हो गई।
त्रयोदश अध्ययन
चक्रवर्ती सनत्कुमार ने भावभक्तिपूर्वक सम्भूत मुनि को वन्दन किया; पटरानी सुनन्दा ने भी झुककर प्रणाम किया। असावधानीवश उसके लम्बे कोमल सचिक्कण केशों का स्पर्श संभूत मुनि के पैरों से हो गया। मुनि का चित्त चंचल हो गया। उन्होंने निदान किया- यदि मेरी तपस्या का कुछ भी फल हो तो मैं भविष्य में चक्रवर्ती बनकर संसार के अनुपम सुख भोगूँ ।
चित्र और संभूत-दोनों ने अनशन किया। दोनों ने कालधर्म प्राप्त किया। लेकिन संभूत मुनि ने अन्तिम समय तक अपने निदान की आलोचना नहीं की। कालधर्म प्राप्त कर दोनों मुनि सौधर्म देवलोक के पद्मगुल्म विमान में देव बने ।
वहाँ का आयुष्य पूर्णकर संभूत मुनि के जीव ने काम्पिल्य नगर के ब्रह्म राजा की रानी चुलनी की कुक्षि से जन्म लिया और ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती बनकर सांसारिक सुखों का भोग करने लगा।
चित्र मुनि के जीव ने पुरिमताल नगर के एक अत्यधिक धनाढ्य सेठ के पुत्ररूप में जन्म ग्रहण किया । स्थविरों का उपदेश सुनकर उसे जातिस्मरण ज्ञान हुआ, श्रामणी दीक्षा ग्रहण करके तप-संयम में लीन हो गया।
ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती एक बार नाटक देख रहा था। नाटक देखते-देखते उसके मन में विचार आया- ऐसा नाटक मैंने पहले भी कभी देखा है। पर कब और कहाँ ? इस प्रकार मनोमंथन करते-करते उसे अपने पाँच पूर्वजन्मों की स्मृति हो आई । (चित्र देखें) वह अपने भाई चित्र की स्मृति में विकल हो गया। उसकी खोज करने के लिए ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती ने श्लोक की एक पंक्ति बनाई और घोषणा की जो इस श्लोक की पूर्ति करेगा, उसे मैं अपना आधा राज्य दे दूँगा । श्लोक का पूर्वार्द्ध था
आश्व दासौ मृगी हंसी, मातंगाऽवमरौ तथा ।
चक्रवर्ती के आधे राज्य का लोभ बहुत बड़ा होता है। यद्यपि इस श्लोकार्ध के रहस्य का ज्ञान किसी को नहीं था, अतः कोई पादपूर्ति तो न कर सका; किन्तु यह पंक्ति साक्षर निरक्षर, उच्च-नीच, श्रेष्ठी श्रमिक सभी की जुबान पर चढ़ गई थी, सभी इसे यत्र-तत्र गुनगुनाते रहते थे ।
चित्र मुनि ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए एक बार कांपिल्यपुर में आये और नगर के बाहर उद्यान में ठहर गये। वहाँ खेत पर अरघट चलाने वाला इसी पंक्ति को गुनगुना रहा था। मुनि ने पंक्ति सुनी और तुरन्त पाद- पूर्ति कर दी -
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एषा नौ षष्ठिका जातिः, अन्योन्याभ्यां वियुक्तयोः ।
अरघट चालक ने इस पंक्ति को रटकर कंठस्थ किया और चक्रवर्ती की राजसभा में जाकर वह पंक्ति ज्यों की त्यों सुनादी ।
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