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५७] षष्टम अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
षष्टम अध्ययन : क्षुल्लक निर्ग्रन्थीय
पूर्वालोक
प्रस्तुत अध्ययन का नाम क्षुल्लक निर्ग्रन्थीय है। यहाँ क्षुल्लक का अभिप्राय नवदीक्षित अथवा लघुमुनि व शिष्य है और निर्ग्रन्थ शब्द श्रमण-साधु का वाचक है।
निर्ग्रन्थ शब्द का प्रयोग जैन धर्म के लिए अति प्राचीन काल से होता रहा है। भगवान महावीर को निग्गंठ नायपुत्ते कहा गया तथा उनके श्रमणों को निग्गंठ अथवा नियंठ - निर्ग्रन्थ कहा गया है।
निर्ग्रन्थ का अर्थ है-ग्रंथ रहित होना । ग्रन्थ सूक्ष्म और स्थूल रूप से दो प्रकार का है। सूक्ष्म ग्रन्थ आन्तरिक परिग्रह - मिथ्यात्व, क्रोध-मान-माया, लोभ आदि १४ प्रकार का है।
इसी आन्तरिक ग्रन्थ के प्रभाव से बाह्य ग्रन्थ - धन-धान्य आदि १० प्रकार के परिग्रह का संचय किया जाता है अथवा इनके प्रति आसक्ति रखी जाती है।
पिछले पांचवें अध्ययन में साधक के लिए सकाम मरण को श्रेयस्कर बताया था किन्तु स्मरणीय तथ्य यह है कि सकाम अथवा पंडितमरण निरासक्त निर्ग्रन्थ श्रमण को ही होता है। पंडितमरण का मूल वीतराग भाव में निहित है।
प्रस्तुत अध्ययन में लघुमुनि को ग्रन्थरहित होने की प्रेरणा देकर वीतराग भाव का संस्पर्श करने के लिए सावधान किया गया है।
जैनधर्म और आगमों में बहु प्रचलित शब्द मिथ्यात्व के लिए प्रस्तुत अध्ययन की प्रथम गाथा में अविद्या शब्द रखा गया है और बताया गया है कि जितने भी अविद्यावान पुरुष हैं, वे सभी दुःखी होते हैं। इन शब्दों सेक्षुल्लक मुनि को मिथ्यात्व से विरत होने की प्रेरणा दी गई है।
सम्पूर्ण अध्ययन में अनासक्ति का स्वर गूँज रहा है। लघु मुनि को प्रेरणा दी गई है कि धन, परिजन आदि रक्षक नहीं हो सकते। इसलिए कहा गया है कि आसक्ति और स्नेह को तोड़ दो। यहाँ तक कि अपने शरीर के प्रति जो मोह है, उसका भी त्याग कर देना चाहिए ।
सभी प्रकार के राग-द्वेष से मुक्त होना श्रमण का लक्ष्य है, इसी लक्ष्य की ओर लघु श्रमण को प्रेरित किया गया है।
एकान्तवादियों के चक्रव्यूह में न फँसकर शुद्ध श्रमणाचार का पालन करते हुए अप्रमत्त भाव से विचरण करने की प्रेरणा दी गई है। मुमुक्षु, आत्म- गवेषी साधु के लिए प्रस्तुत अध्ययन में निर्ग्रन्थता का बहुत ही विवेचन हुआ है।
इस अध्ययन में १८ गाथाएँ हैं।
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