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________________ १३. विहग इव सबओ विप्पमुक्का, १४. मंदरो इव अप्पकंपा, १५. सारयसलिलं व सुद्धहियया, १६. खग्गिविसाणं इव एगजाया, १७. भारंडपक्खी इव अप्पमत्ता, १८. कुंजरो इव सोंडीरा, १९. वसभो इव जायत्थामा, २०. सीहो इव दुद्धरिसा, २१. वसुंधरा इव सव्वफासविसहा, २२. सुहृय हुयासणो इव तेयसा जलंता। २७. श्रमण भगवान महावीर के वे अन्तेवासी अनगार भगवान ईर्या समिति, भाषा समिति, एषणा समिति, आदान-भांड मात्र निक्षेपणा समिति तथा उच्चार-प्रस्रवण समिति से समित-समिति की आराधना में यतनाशील थे। वे मनोगुप्त, वचोगुप्त, कायगुप्त-मन, वचन तथा शरीर की क्रियाओं का संयम करने वाले थे। वे गुप्त विषयों से विरक्त रागरहितअन्तर्मुख थे, गुप्तेन्द्रिय-इन्द्रियों को निग्रह करने में तत्पर, गुप्त ब्रह्मचारी-नवबाड़ सहित ब्रह्मचर्य का पूर्ण पालन करने वाले, अमम-ममत्वरहित, अकिंचन-परिग्रहरहित, छिन्नग्रन्थसंसार से जोड़ने वाले पदार्थ रूप ग्रन्थियों से विमुख, छिनस्रोत-लोकप्रवाह में नहीं बहने वाले, निरुपलेप-कर्मबन्ध के लेप से रहित थे। जिस प्रकार (१) काँसे के पात्र में पानी नहीं लगता, उसी प्रकार वे अनगार स्नेह, आसक्ति आदि के लगाव से रहित थे, (२) शंख के समान निरंगण-राग आदि के रंग से अलिप्त (शंख पर कोई रंग नहीं लगता है, उसी प्रकार क्रोध, द्वेष, राग, प्रेम, प्रशंसा, निन्दा आदि से अप्रभावित रहते थे), (३) जीव को गति करने में जैसे कहीं कोई अवरोध नहीं रहता, उसी प्रकार वे अप्रतिहतगति थे, (४) जात्य-उत्तम जाति के, शुद्ध स्वर्ण के समान जातरूप-निर्मल चारित्र-सम्पन्न थे, (५) दर्पण के सदृश-छल व कपटरहित शुद्ध पारदर्शी जीवन जीने वाले, (६) कछुए की तरह गुप्तेन्द्रिय-निवृत्ति-भाव में स्थित रहने वाले, (७) कमलपत्र के समान निर्लेप, (८) आकाश के तुल्य निरालम्ब-पराश्रय से निरपेक्ष, (९) वायु की तरह निरालय-गृहरहित, (१०) चन्द्रमा के समान सौम्य लेश्यायुक्त, (११) सूर्य के समान दीप्ततेज-शारीरिक तथा आत्मिक तेजयुक्त, (१२) समुद्र के समान गम्भीर, (१३) पक्षी की तरह सर्वथा विप्रमुक्त-परिवार, परिजन आदि से मुक्त तथा निश्चित निवासरहित, (१४) मेरु पर्वत के समान अप्रकम्प-अनुकूल, प्रतिकूल परीषहों में अविचल, (१५) शरद ऋतु के जल के समान शुद्ध हृदय, (१६) गेंडे के सींग के समान एकजात-राग आदि भावों से रहित एक मात्र आत्मनिष्ठ, (१७) भारण्ड पक्षी के समान अप्रमत्तप्रमादरहित, जागरूक, (१८) हाथी के सदृश शौण्डीर-कषाय आदि को जीतने में शरवीर, बलशाली, (१९) वृषभ के समान धैर्यशील, (२०) सिंह के समान दुर्धर्ष-परीषहों व कष्टों से अपराजेय, (२१) पृथ्वी के समान सभी शीत, उष्ण, अनुकूल, प्रतिकूल स्पर्शों को समभाव समवसरण अधिकार (69) Samavasaran Adhikar www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.002910
Book TitleAgam 12 Upang 01 Aupapatik Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2003
Total Pages440
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_aupapatik
File Size16 MB
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