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उनकी नाभि कमल की तरह विकट - गूढ़, गंगा के भँवर की तरह गोल, दाहिनी ओर चक्कर काटती हुई तरंगों की तरह घुमावदार, सुन्दर, चमकते हुए सूर्य की किरणों से विकसित होते कमल के समान खिली हुई थी ।
उनकी देह का मध्य भाग, त्रिकाष्ठिका, मूसल व दर्पण के हत्थे के मध्य भाग के समान, तलवार की मूठ के समान तथा उत्तम वज्र के समान ( पतला ) था ।
उनकी कमर गोल घेराव लिए रोग, शोकादि रहित स्वस्थ उत्तम घोड़े तथा उत्तम सिंह की कमर के समान थी ।
उत्तम घोड़े के सुगठित गुप्तांग की तरह उनका गुह्य भाग था ।
आकीर्ण जाति के उत्तम अश्व की तरह उनका शरीर ' मल-मूत्र विसर्जन की क्रिया से निर्लेप था, उनकी गति - चाल श्रेष्ठ हाथी के समान पराक्रम और गम्भीरता लिए थी।
हाथी की सूँड़ की तरह उनकी जंघाएँ सुगठित थीं ।
उनके घुटने डिब्बे के ढक्कन की तरह निगूढ़ थे - माँसलता के कारण अच्छी प्रकार ढँके हुए - बाहर नहीं निकले हुए थे। उनकी पिण्डलियाँ हरिणी की पिण्डलियों, कुरुविन्द घास तथा कते हुए सूत की गेंढ़ी की तरह क्रमशः उतार सहित गोल आकार की थीं।
उनके टखने सुन्दर, सुगठित और निगूढ़ थे ।
उनके चरण सुप्रतिष्ठित - सुन्दर रचनायुक्त तथा कछुए की तरह उठे हुए होने से मनोज्ञ प्रतीत होते थे ।
उनके पैरों की अंगुलियाँ क्रमशः आनुपूर्वीयुक्त - क्रमिक छोटी-बड़ी एवं सुसंहत - सुन्दर रूप में एक-दूसरे से सटी हुई थीं ।
उनके पैरों के नख उन्नत, पतले, ताँबे की तरह लाल, स्निग्ध - चिकने थे ।
उनकी पगथलियाँ लाल कमल के पत्ते के समान मृदुल, सुकुमार तथा कोमल थीं ।
उनके शरीर में उत्तम पुरुषों के योग्य १००८ शुभ लक्षण थे।
उनके चरण पर्वत, नगर, मगर, सागर तथा चक्र रूप उत्तम चिह्नों और स्वस्तिक आदि मंगल चिह्नों से अंकित थे।
विस्तीर्ण
उनका रूप विशिष्ट - असाधारण था, उनका तेज निर्धूम अग्नि की ज्वाला, विद्युत् तथा अभिनव सूर्य की किरणों के समान था ।
औपपातिकसूत्र
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Aupapatik Sutra
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