________________
R58058058038535AGE
*
* करते हुए अपने अतिचारों, दोषों की आलोचना की, उनसे प्रतिक्रान्त-दूर हुए, समाधि दशा * प्राप्त की। मृत्यु-समय आने पर देह त्यागकर ब्रह्मलोक कल्प में वे देव रूप में उत्पन्न हुए। * उस स्थान के अनुरूप वहाँ उनकी गति बतलाई गई है। उनका आयुष्य दश सागरोपम कहा * गया है। वे परलोक के आराधक हैं। अवशेष वर्णन पहले की तरह समझना चाहिए। 88. This way those Parivrajaks abandoned four kinds of eatables
many a meal-time fasting. While doing so they critically reviewed their faults and transgressions. Distancing themselves from faults they attained the state of total tranquility of mind. When time came they abandoned their earthly bodies and were born as gods in the Brahmalok kalp. Their state (gati) is according
to their respective status. Their life-span there is ten Sagaropam * (a metaphoric unit of time). They are true spiritual aspirants for * next birth. Other details should be taken as already mentioned * अम्बड़ परिव्राजक के विषय में गौतम की जिज्ञासा
८९. बहुजणे णं भंते ! अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ, एवं भासइ, एवं परूवेइ-एवं में खलु अंबडे परिवायए कंपिल्लपुरे णयरे घरसए आहारमाहरेइ, घरसए वसहि उवेइ, से कहमेयं भंते ! एवं ?
८९. (गौतम-) भगवन् ! बहुत से लोग परस्पर एक-दूसरे से इस प्रकार भाषण करते * हैं-इस प्रकार प्ररूपित करते हैं-बतलाते हैं कि अम्बड़ परिव्राजक काम्पिल्यपुर नगर में * एक ही समय सौ घरों में आहार करता है, सौ घरों में निवास करता है। भगवन् ! यह बात * कैसे है? * GAUTAM'S QUERY ABOUT AMBAD PARIVRAJAK * 89. Bhante ! Many a people say, speak and assert that Ambad
Parivrajak takes his food from a hundred households and lives in a hundred households at the same time in Kampilyapur city. Bhante !
How is it so ? * भगवान का समाधान
९०. गोयमा ! जं णं से बहुजणे अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ जाव एवं परूवेइ-एवं खुल अम्मडे परिवायए कंपिल्लपुरे जाव घरसए वसहिं उवेइ, सच्चे णं एसमटुं अहंपि णं
गोयमा ! एवमाइक्खामि जाव एवं परूवेमि, एवं खलु अम्मडे परिवायए जाव वसहि उवेइ। * औपपातिकसूत्र
Aupapatik Sutra Smages
SRODR55058oSROSAROSoSo98580558580580585805858058
(258)
CONVOODOG
POTODODVODEO
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org