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________________ PUNCBSEGORIGIOGRAPHARMAORMAORMAORMAORMAORMAORMAOMAditia हत्थीतावस-जो हाथी मारकर बहुत समय तक उसका भक्षण करते थे। इन तपस्वियों का यह अभिमत था कि एक हाथी को एक वर्ष या छह महीने में मारकर हम केवल एक ही जीव का वध करते हैं, अन्य जीवों को मारने के पाप से बच जाते हैं। सूत्रकृतांग टीकाकार के अभिमतानुसार हस्तीतापस बौद्ध भिक्षु थे। आर्द्रककुमार का हस्तितापसों के साथ बहुत लम्बा संवाद सूत्रकृतांग में है। ललितविस्तर में हस्तीव्रत तापसों का उल्लेख है। महावग्ग में भी दुर्भिक्ष के समय हाथी आदि के माँस खाने का उल्लेख मिलता है। दिसापोक्खी-जल से दिशाओं का सिंचन कर पुष्प, फल आदि बटोरने वाले। भगवतीसूत्र में हस्तिनापुर के शिवराजर्षि का उपाख्यान है। उन्होंने दिशा-प्रोक्षक तपस्वियों के निकट दीक्षा ग्रहण की थी। वाराणसी का सोमिल ब्राह्मण तपस्वी भी चार दिशाओं का अर्चक था। आवश्यकचूर्णि के अनुसार राजा प्रसन्नचन्द्र अपनी महारानी के साथ दिशा-प्रोक्षकों के धर्म में दीक्षित हुआ था। वसुदेवहिंडी और दीघनिकाय में भी दिसापोक्खी तापसों का वर्णन मिलता है। वाउभक्खी-वायु पीकर रहने वाले। रामायण (३-११) में मण्डकरनी नामक तापस का उल्लेख है, जो केवल वायु पर जीवित रहता था। महाभारत (१/९६/४२) में भी वायुभक्षी तापसों के उल्लेख मिलते हैं। ___ सेवालभक्खी-केवल शैवाल को खाकर जीवन यापन करने वाले। बौद्ध ग्रन्थ ललितविस्तर में भी इस सम्बन्ध में वर्णन मिलता है। ___इनके अतिरिक्त भी अनेक प्रकार के तापस थे, जो मूल, कंद, छाल, पत्र, पुष्प और बीज का सेवन करते थे और कितने ही सड़े गले हुए मूल, कन्द, छाल, पत्र आदि द्वारा अपना जीवन यापन करते थे। दीघनिकाय आदि में भी इस प्रकार के वर्णन हैं। इनमें से अनेक तापस पुनः-पुनः स्नान किया करते थे, जिससे इनका शरीर पीला पड़ जाता था। ये गंगा के किनारे रहते थे और वानप्रस्थाश्रम का पालन करते थे। ये तपस्वीगण एकाकी न रहकर समूह के साथ रहते थे। कोडिन्न-दिन्न और सेवालि नाम के कितने ही तापस तो पाँच सौ-पाँच सौ तापसों के साथ रहते थे। ये गले सड़े हुए कन्द-मूल, पत्र और शैवाल का भक्षण करते थे। उत्तराध्ययन टीका में वर्णन है कि ये तापसगण अष्टापद की यात्रा करने जाते थे। वहाँ गणधर गौतम ने इनको प्रतिबोध दिया। वनवासी साधु तापस कहलाते थे। ये जंगलों में आश्रम बनाकर रहते थे। यज्ञ-याग करते, पंचाग्नि द्वारा अपने शरीर को कष्ट देते थे। इनका बहुत सारा समय कन्द-मूल और वन के फलों को एकत्रित करने में व्यतीत हो जाता था। व्यवहारभाष्य में यह भी वर्णन है कि ये तापसगण ओखली और खलिहान के सन्निकट पड़े हुए धानों को बीनते और उन्हें स्वयं पकाकर खाते। प्रसिद्ध दार्शनिक कणाद ऋषि खलिहान में पड़े कण बीनकर ही खाते थे। कितनी बार एक चम्मच में आये, उतना ही आहार करते या कि धान्य-राशि पर वे वस्त्र फेंकते और जो अन्न कण उस वस्त्र पर लग जाते, उतने से वे अपने उदर का पोषण करते थे। तापसों की एक बहुत विस्तृत परम्परा रही है। पल्योपम का विस्तृत वर्णन सोदाहरण सचित्र अनुयोगद्वार सूत्र, भाग २ में देखें। औपपातिकसूत्र (234) Aupapatik Sutra Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002910
Book TitleAgam 12 Upang 01 Aupapatik Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2003
Total Pages440
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_aupapatik
File Size16 MB
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