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________________ १७. मिगलुद्धगा, १८ हत्थितावसा, १९. उद्दंडगा, २० दिसापोक्खिणो, २१. वाकवासिणो, २२. बिलवासिणो, २३. वेलंवासिणो, २४. जलवासिणो, २५. रुक्खर्मूलिया, २६. अंबुभक्खिणो, २७. वाउभक्खिणो, २८. सेवालभक्खिणो, २९. मूलाहारा, ३०. कंदाहारा, ३१. तयाहारा, ३२. पत्ताहारा, ३३. पुप्फाहारा, ३४. बीयाहारा, ३५. परिसडियकंदमूलतयपत्तपुप्फफलाहारा, ३६. जलाभिसेयकढिणगायभूया, ३७. आयावणाहिं, पंचग्गितावेहिं, इंगालसोल्लियं, कण्डुसोल्लियं, कट्ठसोल्लियं पिव अप्पाणं करेमाणा बहूई वासाई परियागं पाउणंति, बहूई वासाइं परियागं पाउणित्ता कालमासे कालं किच्चा उक्कोसेणं जोइसिएसु देवेसु देवत्ताए । उववत्तारो भवंति । पलिओवमं वाससयसस्समब्भहियं टिई | आराहगा ? णो इट्टे समट्टे । सेसं तं चेव । ७४. गंगा के किनारे रहने वाले ये वानप्रस्थ तापस भी अनेक प्रकार के होते हैं । जैसे(१) होतृक - अग्निहोत्र करने वाले, (२) पोतृक - वस्त्रधारी, (३) कौतृक - भूमि पर सोने वाले, (४) यज्ञ करने वाले, (५) श्राद्ध करने वाले, (६) थाली आदि पात्र धारण करने वाले, (७) हुंबरट्ट - कुण्डी धारण करने वाले, (८) दंतोलूखलिक - फलाहारी, (९) उन्मज्जक - पानी में एक बार डुबकी लगाकर नहाने वाले, कानों तक जल-स्नान करने वाले, (१०) सम्मज्जकबार-बार डुबकी लगाकर नहाने वाले, (११) निमज्जक - पानी में कुछ देर तक डूबे रहकर स्नान करने वाले, (१२) संप्रक्षालक - शरीर पर मिट्टी आदि रगड़कर स्नान करने वाले, (१३) दक्षिणकूलक - गंगा के दक्षिणी तट पर रहने वाले, (१४) उत्तरकूलक - गंगा के उत्तरी तट पर निवास करने वाले, (१५) शंखध्मायक - शंख बजाकर भोजन करने वाले (शंख इसलिए बजाते थे कि अन्य व्यक्ति भोजन करते समय न आये), (१६) कूलध्मायक - किनारे पर खड़े होकर उच्च स्वर कर भोजन करने वाले, (१७) मृगलुब्धक - व्याधों की तरह हिरणों का माँस खाकर जीवन चलाने वाले, (१८) हस्तितापस - हाथी का वध कर उसका माँस खाकर बहुत काल व्यतीत करने वाले, (१९) उद्दण्डक - दण्ड को ऊँचा किये घूमने वाले, (२०) दिशाप्रोक्षी - दिशाओं में जल छिड़ककर फल-फूल इकट्ठे करने वाले, (२१) वल्कवासी - वृक्ष की छाल को वस्त्र की तरह धारण करने वाले, (२२) बिलवासी - बिलों में ( गुफाओं में) निवास करने वाले, (२३) वेलवासी - समुद्र तट के समीप निवास करने वाले, (२४) जलवासी - पानी, नदी आदि में निवास करने वाले, (२५) वृक्षमूलक - वृक्षों के नीचे निवास करने वाले, (२६) अम्बुभक्षी - जल उपपात वर्णन Description of Upapat Jain Education International (231) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002910
Book TitleAgam 12 Upang 01 Aupapatik Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2003
Total Pages440
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_aupapatik
File Size16 MB
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