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________________ * विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में ऐसे मनुष्यों की चर्चा है, जो सम्यक्त्वी तो नहीं होते, किन्तु अपनी परम्परागत * धारणाओं के वश विशेष कठिन व्रतों का आचरण करते हैं, अपनी चली आती मान्यता के अनुसार * विशेष साधना में लगे रहते हैं,जो कम से कम सुविधाएँ और अनुकूलताएँ स्वीकार करते हैं, कष्ट झेलते र हैं, शरीर को तपाते हैं और क्रूर परिणामों से भी बचते हैं वे आयुष्य पूर्ण करके वाणव्यन्तर देवों में उत्पन्न होते हैं। उन गृहस्थ साधकों या परिव्राजकों के लिए प्रस्तुत सूत्र में निम्न आठ विशेषण आये हैं, १ जिनका विशेष स्पष्टीकरण इस प्रकार है१ (१) गौतम-ये अपने पास एक नन्हा-सा बैल रखते थे, जिसके गले में कौड़ियों की माला होती, जो ॐ संकेत से अन्य व्यक्तियों के चरण स्पर्श करता। इस बैल को साथ रखकर यह साधु भिक्षा माँगा करते थे। (२) गोव्रतिक-गोव्रत रखने वाले। गाय के साथ ही ये परिभ्रमण करते। जब गाय गाँव से बाहर जाती तो ये भी उसके साथ जाते। गाय चारा चरती तो ये भी चरते और गाय के पानी पीने पर ये भी पानी पीते। जब गाय सोती तो ये सोते। गाय की भाँति ही घास और पत्तों का ये आहार करते थे। टीकाकार अभयदेवसूरि ने भी गोव्रतिकों का उल्लेख किया है, मज्झिम निकाय में भी इन गोव्रतिक साधुओं का * उल्लेख मिलता है। "गावीहि समं निग्गमपेवससयणासणाइ पकरेंति। भुंजंति जहा गावी तिरिक्खवासं विहाविता॥" __"गायों के गाँव से बाहर निकलने पर गोव्रतिक बाहर निकलते हैं। वे जब चलती हैं, वे चलते हैं * अथवा वे जब चरती हैं-घास खाती हैं, वे भोजन करते हैं। वे जब पानी पीती हैं, वे पानी पीते हैं। वे आती हैं, तब वे आते हैं। वे सो जाती हैं, तब वे सोते हैं। वैदिक परम्परा में गाय की सेवा-उपासना * का विशेष महत्त्व रहा है। (३) गृहधर्मी-ये अतिथि, देव आदि को दान देकर परम आल्हादित होते थे और अपने आपको * गृहस्थ धर्म का सही रूप से पालन करने वाले मानते थे। (४) धर्मचिन्तक-ये धर्मशास्त्र के पठन और चिन्तन में तल्लीन रहते थे। अनुयोगद्वारसूत्र की टीका में याज्ञवल्क्य प्रभृति ऋषियों द्वारा निर्मित धर्म-संहिताओं का चिन्तन करने वालों को धर्मचिन्तक * कहा है। 4 (५) अविरुद्ध-देवता, राजा, माता-पिता, पशु और पक्षियों की समान रूप से भक्ति करने वाले २ अविरुद्ध साधु कहलाते थे। ये सभी को नमस्कार करते थे, इसलिए विनयवादी या भक्तिमार्गी भी कहलाते थे। आवश्यकनियुक्ति में इनका उल्लेख है। भगवतीसूत्र के अनुसार ताम्रलिप्ति के मौर्य-पुत्र तामलि ने यही प्रणामा-प्रवज्या ग्रहण की थी। बौद्ध ग्रन्थ अंगुत्तरनिकाय में भी अविरुद्धकों का वर्णन है। 8 (६) विरुद्ध-ये पुण्य-पाप, स्वर्ग-नरक आदि नहीं मानते थे। ये क्रिया विरोधी होने से अक्रियावादी कहलाते थे। . (७) वृद्ध-तापस लोग प्रायः वृद्धावस्था में संन्यास लेते थे। इसलिए ये वृद्ध कहलाते थे। अभयदेवसूरि हुन ॐ कृत टीका के अनुसार वृद्ध अर्थात् तापस, श्रावक अर्थात् ब्राह्मण। तापसों को वृद्ध इसलिए कहा गया है । * औपपातिकसूत्र Aupapatik Sutra (228) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.002910
Book TitleAgam 12 Upang 01 Aupapatik Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2003
Total Pages440
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_aupapatik
File Size16 MB
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