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३०. (झ) प्रायश्चित्त तप क्या है-कितने प्रकार का है ?
प्रायश्चित्त तप (कर्मों से मलिन चित्त-चैतन्य रूप आत्मा का शोधन करने की स्वतः प्रेरित प्रक्रिया प्रायश्चित्त है) दस प्रकार का कहा है, जो इस प्रकार है-(१) आलोचनार्हआलोचन योग्य-दोष को प्रकट करने मात्र से होने वाला प्रायश्चित्त। (गमन, आगमन, भिक्षा, प्रतिलेखन आदि दैनिक कार्यों में लगने वाले दोषों को गुरु या ज्येष्ठ साधु के समक्ष प्रकट करने, उनकी आलोचना करने से दोष-शुद्धि हो जाती है।) (२) प्रतिक्रमणार्ह-पाप या अशुभ योग में प्रवृत्त आत्मा को उनसे पीछे लौटाने वाला प्रायश्चित्त। (पाँच समिति तथा तीन गुप्ति के पालन में अकस्मात् या अनुपयोग से लगने वाले दोषों को लेकर 'मिच्छामि दुक्कडं'-मेरा दुष्कृत या पाप मिथ्या हो-निष्फल हो, यों चिन्तनपूर्वक प्रायश्चित्त करने से दोष-शुद्धि हो जाती है।) (३) तदुभयार्ह-जिसमें आलोचना तथा प्रतिक्रमण-दोनों की अपेक्षा रहती हो। (४) विवेकार्ह-(साधु यदि अज्ञानवश सदोष आहार आदि ले ले तथा फिर उसे पता चल जाये, तब उसे अपने उपयोग में न लेकर) विवेक करके त्याग देने से यह प्रायश्चित्त होता है। (५) व्युत्सर्गार्ह-कायोत्सर्ग द्वारा होने वाला प्रायश्चित्त। (नदी पार करने में, उच्चार-मल, मूत्र आदि परठने में लगने वाले दोषों की शुद्धि के लिए यह प्रायश्चित्त है।) (६) तपोऽर्ह-तप द्वारा होने वाला प्रायश्चित्त। (सचित्त वस्तु को छूने, आवश्यक आदि समाचारी, प्रतिलेखन, प्रमार्जन आदि नहीं करने से लगने वाले दोषों की शुद्धि के लिए यह प्रायश्चित्त है। यह नवकारसी से लेकर छह मास तक का होता है।) (७) छेदार्ह-दीक्षा-पर्याय कम कर देने से होने वाला प्रायश्चित्त। (सचित्त-विराधना, प्रतिक्रमण नहीं करना आदि कारणों से लगने वाले दोषों की शुद्धि के लिए यह प्रायश्चित्त है। इसमें पाँच दिन से लेकर छह मास तक के दीक्षा-पर्याय का छेदन करने का विधान है।) (८) मूलार्ह-पुनः दीक्षा देने से होने वाला प्रायश्चित्त। (अनाचार-सेवन, चारित्र-भंग तथा जानबूझकर महाव्रत-खण्डन से लगने वाले दोषों की शुद्धि के लिए यह प्रायश्चित्त है।) (९) अनवस्थाप्यार्ह-प्रायश्चित्त के रूप में दिया गया विशिष्ट तप, जब तक न कर लिया जाये, तब तक उस साधु को संघ से अवस्थापित करना-सम्बन्ध विच्छेद रखना तथा उसे पुनः दीक्षा नहीं देना, यह अनवस्थाप्याई प्रायश्चित्त है। (साधर्मिक साधु-साध्वियों की चोरी करना, अन्यतीर्थिक की चोरी करना, गृहस्थ की चोरी करना, परस्पर मारपीट करना आदि से साधु को यह प्रायश्चित्त आता है।) (१०) पाराञ्चिकार्ह-तप के द्वारा अपने कृत पापों से पार पहुँचने की भावना से किया जाने वाला प्रायश्चित्त। (इसमें संघ से सम्बन्ध विच्छिन्न कर, तप-विशेष का अनुष्ठान कराकर गृहस्थभूत बनाकर, पुनः व्रतों में स्थापित करने का विधान है। कषाय-दुष्ट, विषय-दुष्ट, महाप्रमादी-मद्यपायी, स्त्यानर्द्धि निद्रा में प्रमादपूर्ण कर्म करने वाले तथा समलैंगिक विषयसेवी को यह प्रायश्चित्त आता है। विशेष वर्णन के लिए देखें-बृहत्कल्प, उद्देशक ४)
समवसरण अधिकार
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Samavasaran Adhikar
Py
पूजपूmughagrap
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