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________________ द्वितीय स्थान अध्ययन सार - प्रथम स्थान में चेतन-अचेतन सभी पदार्थों का संग्रहनय की अपेक्षा से एकत्व का प्रतिपादन किया गया है। उसमें 'अद्वैत' प्रधान दृष्टि थी किन्तु प्रस्तुत द्वितीय स्थान में व्यवहारनय की अपेक्षा से भेद ॥ विवक्षा से प्रत्येक द्रव्य, वस्तु या पदार्थ के दो-दो भेद करके द्वैतवादी दृष्टि से प्रतिपादन किया गया है है। इस स्थान का प्रथम सूत्र, इस सम्पूर्ण अध्ययन का सार रूप है-'जदत्थि णं लोगे तं सबं दुपओआरं'-इस लोक में जो कुछ है, वह सब दो-दो पदों में अवतरित होता है अर्थात् उनका समावेश दो विकल्पों में हो जाता है। जगत् का प्रत्येक तत्त्व प्रतिपक्ष सहित है। इस वाक्य के अनुसार इस स्थान के चारों उद्देशों में सम्पूर्ण लोक की सभी वस्तुओं का दो-दो पदों में वर्णन किया गया है। पहले स्थान में कोई उद्देशक नहीं था। इस स्थान में चार उद्देशक हैं। 0 इसके प्रथम उद्देशक में सर्वप्रथम द्रव्य के दो भेद बताये हैं-जीव और अजीव। फिर जीव तत्त्व के दो दो प्रतिपक्षी भेदों का निरूपण है। अजीव तत्त्व के धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय आदि दो-दो युगलों के का वर्णन है। तदनन्तर बन्ध-मोक्ष, पुण्य-पाप, संवर-निर्जरा आदि का वर्णन करने के पश्चात् जीवन और अजीव के निमित्त से होने वाली २५ क्रियाओं का निरूपण है। गर्दा और प्रत्याख्यान के दो-दो भेदों का कथन कर मोक्ष के दो साधन बताये गये हैं। तत्पश्चात् बताया गया है कि केवलि-प्ररूपित के धर्म का श्रवण, बोधि की प्राप्ति, शुद्ध संयम-पालन और मतिज्ञानादि पाँचों सम्यग्ज्ञानों की प्राप्ति जाने (ज्ञान) और त्यागे (चरित्र) बिना नहीं हो सकती, किन्तु दो स्थानों को जानकर उनके त्यागने पर ही होती है। द्वितीय उद्देशक में चौबीस दण्डकवर्ती जीवों के वर्तमान भव में एवं अन्य भवों में कर्मों के बन्धन और उनके फल का वेदन बताकर सभी दण्डक वाले जीवों की गति-आगति का वर्णन है। तृतीय उद्देशक में दो प्रकार के शब्द और उनकी उत्पत्ति, पुद्गलों का सम्मिलन, भेदन, परिशाटन, पतन, विध्वंस आदि के द्वारा पुद्गल के दो-दो प्रकार बताये गये हैं। तत्पश्चात् आचार और उसके भेद-प्रभेद में बारह प्रतिमाओं का दो-दो रूप में कथन किया गया है। कायस्थिति और भवस्थिति का वर्णन कर दो प्रकार की आयु, दो प्रकार के कर्म, निरुपक्रम और सोपक्रम आयु भोगने वाले जीवों का वर्णन है। तदनन्तर क्षेत्र, पर्वत, गुहा, कूट, महाद्रह, महानदी आदि के दो-दो पदों द्वारा जम्बूद्वीपस्थ की भौगोलिक स्थिति का विस्तृत वर्णन किया गया है। अन्त में भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और कल्पवासी देवों के दो-दो इन्द्रों का निरूपण एवं विमानवासी देवों के सम्बन्ध में कथन है। चतुर्थ उद्देशक में समय, आवलिका से लेकर उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी पर्यन्त काल के सभी भेदों को, तथा ग्राम, नगर से लेकर राजधानी तक के सभी जन-निवासों को, सभी प्रकार के उद्यान-वनादि को, सभी प्रकार के कूप-नदी आदि जलाशयों को, फिर नरक, नारकावास, विमान-विमानवास आदि सभी लोकस्थित पदार्थों को जीव और अजीव रूप बताया गया है। u555555555555555555555555555555555 55 55 55 555555 5 55 59 स्थानांगसूत्र (१) (40) Sthaananga Sutra (1) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002905
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2004
Total Pages696
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_sthanang
File Size21 MB
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