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म ममं च णं अब्भोवगमिओवक्कमियं [वेयणं ? ] सम्ममसहमाणस्स अक्खममाणस्स अतितिक्खेमाणस्स अणहियासेमाणस्स किं मण्णे कज्जति ?
एगंतसो मे पावे किम्मे कज्जति। * ममं च णं अभोवगमिओवक्कमियं [वेयणं ? ] सम्म सहमाणस्स जाव [खममाणस्स म तितिक्खमाणस्स ] अहियासेमाणस्स किं मण्णे कज्जति ?
एगंतसो मे णिज्जरा कज्जति-चउत्था सुहसेज्जा। ४५१. चार सुखशय्याएँ इस प्रकार हैं
(१) पहली सुखशय्या-कोई पुरुष मुण्डित होकर अगार त्यागकर अनगारता में प्रव्रजित हो, निर्ग्रन्थ प्रवचन में शंका-कांक्षा-विचिकित्सा से मुक्त रहकर, भेद और कालुष्य भाव से दूर रहकर, निर्ग्रन्थ प्रवचन में श्रद्धा करता है, प्रतीति करता है और रुचि करता है। वह निर्ग्रन्थ प्रवचन में श्रद्धा करता हुआ, प्रतीति करता हुआ, रुचि करता हुआ, मन को ऊँचा-नीचा नहीं करता है (किन्तु समता को धारण करता है), वह धर्म के विनिघात-(विनाश) को नहीं प्राप्त होता है (किन्तु धर्म में स्थिर रहता है)। यह उसकी पहली सुखशय्या है।
(२) दूसरी सुखशय्या-कोई पुरुष मुण्डित होकर अगार त्यागकर अनगारिता में प्रव्रजित हो, अपने म प्राप्त (भिक्षा) लाभ से सन्तुष्ट रहता है, दूसरे के लाभ की आशा, प्रार्थना और अभिलाषा नहीं करता है। | वह दूसरे के लाभ की आशा, इच्छा, प्रार्थना और अभिलाषा नहीं करता हुआ मन को ऊँचा-नीचा नहीं ॐ होने देता है। वह धर्म के विनिघात को नहीं प्राप्त होता है। यह उसकी दूसरी सुखशय्या है।
(३) तीसरी सुखशय्या-कोई पुरुष मुण्डित होकर अगार त्यागकर अनगारिता में प्रवजित होकर देवों के और मनुष्यों के काम-भोगों की आशा नहीं करता, इच्छा नहीं करता, प्रार्थना नहीं करता और अभिलाषा नहीं करता है। वह उनकी आशा, इच्छा, प्रार्थना और अभिलाषा नहीं करता हुआ मन को ऊँचा-नीचा नहीं करता है। वह धर्म के विनिघात को नहीं प्राप्त होता है। यह उसकी तीसरी सुखशय्या है।
(४) चौथी सुखशय्या-कोई पुरुष मुण्डित होकर अगार त्यागकर अनगारिता में प्रव्रजित हुआ। तब उसको ऐसा विचार होता है-जब यदि अर्हन्त भगवन्त हृष्ट-पुष्ट, नीरोग, बलशाली और स्वस्थ शरीर वाले होकर भी कर्मों का क्षय करने के लिए उदार, कल्याण, विपुल, प्रयत, प्रगृहीत, महानुभाग, कर्मक्षय करने वाले अनेक प्रकार के तपःकर्मों में से भी अन्यतर (विशिष्ट) तपों को स्वीकार करते हैं, तब मैं आभ्युपगमिकी और औपक्रमिकी वेदना को क्यों न सम्यक् प्रकार से सहूँ ? क्यों न क्षमा धारण करूँ? और क्यों न धीरतापूर्वक वेदना में स्थिर रहँ?
यदि मैं आभ्युपगमिकी और औपक्रमिकी वेदना को सम्यक् प्रकार से सहन नहीं करूँगा, क्षमा धारण नहीं करूँगा और धीरतापूर्वक वेदना में स्थिर नहीं रहूँगा, तो मुझे क्या होगा? मुझे एकान्त रूप ऊ से पाप कर्म होगा?
स्थानांगसूत्र (१)
(548)
Sthaananga Sutra (1)
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