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________________ फफफफफफफफफफफफफफफ दुःखशय्या - पद DUHKHASHAYYA-PAD (SEGMENT OF BED OF MISERY) ४५०. चत्तारि दुहसेज्जाओ पण्णत्ताओ, तं जहा (१) तत्थ खलु इमा पढमा दुहसेज्जा - से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए णिग्गंथे 5 पावयणे संकिते कंखिते वितिगिच्छते भेयसमावण्णे कलुससमावण्णे णिग्गंथं पावयणं णो सद्दहति णो 卐 5 णियच्छति, विणिघातमावज्जति पढमा दुहसेज्जा । पत्तियति णो रोएइ, णिग्गंथं पावयणं असद्दहमाणे अपत्तियमाणे अरोएमाणे मणं उच्चावयं 5 卐 5 (२) अहवा दोच्चा दुहसेज्जा - से णं मुंडे भवित्ता, अगाराओ जाव [ अणगारियं ] पव्वइए सरणं लाभेणं णो तुस्सति, परस्स लाभमासाएति पीहेति पत्थेति अभिलसति, परस्स लाभमासाएमाणे जाव [ पीहेमाणे पत्थेमाणे ] अभिलसमाणे मणं उच्चावयं णियच्छइ, विणिघातमावज्जति - दोच्चा दुहसेज्जा | (४) अहावरा चउत्था दुहसेज्जा - से णं मुंडे जाव [ भवित्ता अगाराओ अणगारियं ] पव्वइए, 5 तस्स णं एवं भवति - जया णं अहमगारवासमावसामि तदा णमहं संवाहण - परिमद्दण - गातब्भंगगातुच्छोलणाई लभामि, जप्यभिदं च णं अहं मुंडे जाव [ भवित्ता अगाराओ अणगारियं ] पव्वइए तप्पभिई च णं अहं संवाहण जाव [ परिमद्दण - गातब्भंग ] गातुच्छोलणाई णो लभामि । से णं संवाहण जाव [ परिमद्दण - गातब्भंग ] गातुच्छोलणाई आसाएति जाव [ पीहेति पत्थेति ] अभिलसति, से णं संवाहण जाव [ परिमद्दण - गातब्भंग ] गातुच्छोलणाई आसाएमाणे जाव [ पीहेमाणे पत्थेमाणे अभिलसमाणे ] मणं उच्चावयं णियच्छति, विणिघातमावज्जति - चउत्था 5 दुहसेज्जा । (३) अहावरा तच्चा दुहसेज्जा - से णं मुंडे भवित्ता जाव [ अगाराओ अणगारियं ] पव्वइए दिव्वे माणुस्सर कामभोगे आसाइए जाव [ पीहेति पत्थेति ] अभिलसति, दिव्वे माणुस्सर कामभोगे आसाएमाणे जाव [ पीहेमाणे पत्थेमाणे ] अभिलसमाणे मणं उच्चावयं णियच्छति, विणिघातमावज्जति - तच्चा दुहसेज्जा । ४५०. चार दुःखशय्याएँ इस प्रकार बताई हैं (१) पहली दुःखशय्या - कोई पुरुष मुण्डित ( दीक्षित) होकर अगार (गृहस्थ अवस्था) से अनगारिता ( साधु धर्म) में प्रव्रजित हो, निर्ग्रन्थ-प्रवचन में 9. शंकित, २. कांक्षित, ३. विचिकित्सित, 5 ४. भेदसमापन्न, और ५. कलुषसमापन्न होकर निर्ग्रन्थ प्रवचन में श्रद्धा नहीं करता, प्रतीति (विश्वास) नहीं करता, रुचि ( प्रेम - प्रीति) नहीं करता। वह निर्ग्रन्थ प्रवचन पर अश्रद्धा करता हुआ, अप्रतीति करता हुआ, अरुचि करता हुआ, मन को ऊँचा- नीचा करता है और विनिघात (धर्मभ्रष्टता) को प्राप्त होता है। यह उसकी पहली दुःखशय्या है। चतुर्थ स्थान अफ्र Jain Education International (545) For Private & Personal Use Only 2555555555955555559555595555555 5 55 55 5595555952 Fourth Sthaan 卐 www.jainelibrary.org
SR No.002905
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2004
Total Pages696
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_sthanang
File Size21 MB
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