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441. For the aforesaid four reasons there occurs dev-kahakaha 卐 (divine laughter as expression of joy). ॐ विवेचन-सूत्र ४३७ में 'देव अंधकार' का कथन है। सामान्य रूप में कहा जाता है कि देवलोक
में कभी अंधकार नहीं होता। किन्तु निम्न चार कारण उपस्थित होने पर सम्पूर्ण लोक में क्षण भर ॐ के लिए अंधकार छा जाता है, ऐसा वृत्तिकार का मत है। सूत्र ४३८ से ४४२ तक देवोद्योत आदि चार शब्द आये हैं। इनका भावार्थ इस प्रकार है
देव-उद्योत-(प्रकाश) दो प्रकार का होता है-द्रव्य-प्रकाश चन्द्र, सूर्य, दीपक आदि का तथा भावॐ प्रकाश, ज्ञान का व सत्य धर्म का। यहाँ पर भाव-प्रकाश की दृष्टि से कथन है। देव-सन्निपात-देवों का म सम्मिलित होकर मनुष्यलोक में आगमन। देवोत्कलिका-देवों की लहरी या जमघट। जैसे एक के पीछे
दूसरी तरंग उठती है उसी प्रकार देवगण पंक्तिबद्ध होकर जब पृथ्वी पर आते हैं, उसे देवोत्कलिका कहा
जाता है। देव-कहकहा-उक्त चारों अवसरों पर देवगण हर्ष व प्रमोद के कारण कल-कल हर्ष-ध्वनि 卐 करते हैं, उसे देव-कहकहा कहते हैं। (वृत्ति मुनि जम्बू विजय जी, भाग २, पृष्ठ ४१८)
Elaboration-There is a mention of darkness in the divine realm in aphorism 437. It is said that generally the divine realm never gets dark. But according to the commentator (Vritti), on the four aforesaid occasions darkness envelopes the whole universe just for a moment. The four technical terms mentioned in aphorisms 438 to 442 are explained as
follows___Dev-udyot (divine light)-It is of two kinds dravya-prakash 4i (physical light) and bhaava-prakash (spiritual light). The light of the + sun, the moon, lamp etc. is physical light and the light of knowledge and y true religion is spiritual light. Here the statements refer to spiritual
light. Dev-sannipat-descending of gods in congregation on the land of humans. Devotkalika-waves of gods or a congregation of gods. When the gods come on the earth in files and columns like waves it is called devotkalika. Dev-kahakaha-on the said four occasions gods emit sounds of laughter to express their delight and joy. This is called dev-kahakaha. (Vritti by Muni Jambu Vijaya ji, part 2, p. 418).
४४२. चउहिं ठाणेहिं देविंदा माणुसं लोग हव्वमागच्छंति, एवं जहा तिठाणे जाव लोगंतिया देवा माणुस्सं लोगं हब्बमागच्छेज्जा। तं जहा-अरहंतेहि जायमाणेहिं, अरहंतेहिं पव्वयमाणेहिं, म अरहंताणं णाणुप्पायमहिमासु, अरहंताणं परिणिव्वाणमहिमासु।
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| स्थानांगसूत्र (१)
(542)
Sthaananga Sutra (1)
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