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संक्षिप्त पाठ ही रखा गया है। हमने पाठकों व अनुसंधानकर्ताओं की सुविधा के लिए युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जी का विस्तृत पाठ ही यहाँ दिया है और उसी के अनुसार विस्तृत पाठ कोष्ठक में दर्शाकर यह भी सूचित किया है कि यह कुछ प्राचीन प्रतियों में नहीं है। ___ हमने मूल पाठ का शब्दशः अनुवाद नहीं देकर भावानुवाद देने का प्रयत्न किया है। भावानुवाद की भाषा सरल और स्पष्ट रखने के उद्देश्य से कहीं-कहीं मूल शब्द के साथ ही उसका प्रचलित अर्थ व संक्षिप्त व्याख्या भी वहीं पर दे दी है, जिससे आगमपाठी जिज्ञासु हिन्दी अनुवाद पढ़ता हुआ उसका पूरा भाव भी समझता रहे, भाषा में प्रवाह तथा रोचकता बनी रहे और उसे बार-बार उन शब्दों का अर्थ समझने के लिए टीका या शब्द कोष नहीं टटोलना पड़े। विवेचन करने में भी हमने उपलब्ध सभी संस्करणों का उपयोग करते हुए भी अपनी स्वतंत्र शैली अपनाई है। अनेक स्थानों पर जिन विषयों का विवेचन आवश्यक प्रतीत हुआ और अन्य व्याख्याकारों ने उस विषय का पर्याप्त स्पष्टीकरण नहीं किया है, तो वहाँ हमने उस विषय से सम्बन्धित अन्य आगमों को देखकर विवेचन में उसका आवश्यक वर्णन किया है। __ हो सकता है, इस कारण कहीं-कहीं विवेचन विस्तृत भी हो गया है, परन्तु वह पाठकों के लिए सुविधाजनक और ज्ञानवर्धक होगा। उन्हें अन्य आगम खोलकर पढ़ने की अपेक्षा नहीं लगेगी। अनेक स्थानों पर संस्कृत टीकाकार ने विषय को स्पष्ट करने वाले पदाहरण व दृष्टान्तों का भी उल्लेख किया है, किन्तु विस्तार भय से हमने उन दृष्टान्त का उल्लेख छोड़ दिया है।
यह शास्त्र कुछ अधिक विस्तृत विवेचन की अपेक्षा रखता है, परन्तु हम इसे मात्र दो भागों में ही प्रकाशित करना चाहते हैं, क्योंकि अभी अन्य आगमों का प्रकाशन भी करना है, इस कारण विवेचन आदि का विस्तार बहुत ही कम किया और जहाँ आवश्यक प्रतीत हुआ वहीं संक्षेप में विवेचन करके हिन्दी टीका व सम्बन्धित शास्त्र देखने का संकेत कर दिया है। इसमें ४-५ परिशिष्ट जोड़ना भी मुझे उपयोगी लग रहा था। जैसे शब्दानुक्रमणिका, मूलसूत्र के कथन को अधिक स्पष्ट करने वाले उदाहरण व दृष्टान्त जिनका वृत्तिकार ने उल्लेख किया है। एक ही विषय, संख्या क्रम से भिन्न-भिन्न स्थानों में बार-बार आया है, जैसे जम्बूद्वीप के नदी, पर्वत, कूट आदि का वर्णन प्रायः सभी स्थानों में आया है, प्रायश्चित्त के प्रकार, प्रतिमाओं का वर्णन आदि इन सबकी तुलनात्मक तालिका आदि। किन्तु पुस्तक की पृष्ठ संख्या बढ़ती देखकर उनको स्थगित ही रखना पड़ा है। ___ इसके सम्पादन में श्रीचन्द जी सुराना 'सरस' ने अथक परिश्रम किया है तथा अंग्रेजी अनुवाद में श्री सुरेन्द्र जी बोथरा ने भी इस बात का ध्यान रखा है कि आगमकार का भाव अंग्रेजी में यथार्थ रूप में व्यक्त हो। यह ग्रन्थ मूलतः अभिधान ग्रन्थ है। अतः उसका वही स्वरूप बनाये रखने के लिए प्रत्येक मूल शब्द व अन्य महत्त्वपूर्ण शब्दों के साथ ही कोष्ठक में उसका उपयुक्त अंग्रेजी अर्थ देकर उसका मौलिक स्वरूप समझाने का प्रयत्न किया है। सुश्रावक श्री राजकुमार जी जैन (देहली) ने अंग्रेजी अनुवाद का पुनः निरीक्षण करने में सेवाभाव से हमें पूर्ण सहयोग दिया है। सभी धन्यवाद के पात्र हैं।
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