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________________ 55555555555555555554)))))))))))))) ऐसा प्रतीत होता है कि स्मरण रखने में संख्या प्रधान-शैली अधिक उपयोगी लगी हो, इस कारण स्थानांग तथा समवायांग की रचना संख्या प्रधान शैली में की गई हो। यह शैली स्मरण रखने में सरल और विषयों की विविधता के कारण अधिक रुचिकर रही है। प्राचीनकाल में संख्या प्रधान शैली में तत्त्व कथन करने की एक परिपाटी प्रचलित थी। बौद्ध आगम त्रिपिटिकों के अंगुत्तर निकाय और पुग्गल पञ्जत्ति की संकलना भी इसी शैली में है तथा महाभारत, गीता आदि में भी संख्याप्रधान शैली में अनेक विषयों का निरूपण हुआ है। स्थानांगसूत्र में वर्णित बहुत से विषय बौद्धों के अंगुत्तरनिकाय में प्रायः मिलती-जुलती शैली में आते हैं। प्रसिद्ध विद्वान् प्रो. दलसुखभाई मालवणिया ने अत्यन्त परिश्रम करके यह अनुशीलन किया है कि स्थानांग के सैकड़ों सन्दर्भ बौद्ध ग्रन्थों में बहुत ही समान रूप में विद्यमान हैं। इससे पता चलता है कि प्राचीनकाल में संख्या प्रधान शैली में ग्रन्थ रचना की शैली प्रचलित थी और वह बहुत लोकप्रिय थी। स्थानांगसूत्र के बहुत से सन्दर्भ अन्य आगमों के साथ भी प्रायः समान रूप में मिलते हैं। जैसे भगवतीसूत्र में आयुबन्ध के छह प्रकार-जातिनाम निधत्तायु, गतिनाम निधत्तायु (शतक ६, उ. ८) चार जाति आशीविष (भगवती, शतक ८, उ. २) आदि। केवली समुद्घात, कर्मबन्ध, शरीर आदि का वर्णन प्रज्ञापनासूत्र में विस्तार से उपलब्ध है। नदी, पर्वत, समुद्र आदि से सम्बन्धित वर्णन जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में आता है। स्वर मण्डल व वचनविभक्ति का पूरा प्रकरण अनुयोगद्वार में ज्यों का त्यों मिलता है। इसके अतिरिक्त प्रश्नव्याकरण, दशाश्रुतस्कंध, उत्तराध्ययन, जीवाभिगमसूत्र आदि के अनेक प्रकरण व सन्दर्भ स्थानांगसूत्र में उपलब्ध हैं। इसका कारण यही प्रतीत होता है कि स्थानांगसूत्र एक संग्रह सूत्र है। इसमें संख्या के अनुसार अन्य आगमों में आये अनेक प्रकरण संग्रहीत हुए हैं। आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी म. ने स्थानांगसूत्र की विस्तृत प्रस्तावना में इसकी सन्दर्भ सहित तुलनात्मक चर्चा की है। इस प्रकार स्थानांगसूत्र के विहंगावलोकन से यह स्पष्ट होता है कि यह आगम एक बृहद् संकलन है। इस संकलन से स्थानांगसूत्र की महत्ता कम नहीं हुई, बल्कि इसकी उपयोगिता और रोचकता में वृद्धि हुई है और यह साधारण बुद्धि पाठक से लेकर गम्भीर विद्वानों तक के लिए उपयोगी सिद्ध होता है। व्याख्या व अनुवाद स्थानांगसूत्र में विषयों की विविधता तो है, परन्तु इतनी जटिलता या गहनता नहीं है कि जिसे समझने के लिए विस्तृत व्याख्या व भाष्य की जरूरत हो, अधिकांश विषय प्रायः स्पष्ट व सहज, सुगम हैं। यही कारण रहा होगा कि अन्य आगमों की तरह इस पर किसी आचार्य ने निर्यक्ति अथवा भाष्य नहीं लिखा है। आचार्य अभयदेव सूरि ने विक्रम संवत् ११२० में इस पर एक विस्तृत संस्कृत टीका का निर्माण किया है। इसमें दार्शनिक व आचार सम्बन्धी विषयों का स्पष्टीकरण भी किया है तथा अन्य अनेक ग्रन्थों के सन्दर्भ उद्धृत कर उसे अधिक स्पष्ट रूप से समझाया है तथा विशद रूप में समझाने के लिए बीच-बीच में प्राचीन व ऐतिहासिक दृष्टान्तों व उदाहरणों का भी उल्लेख किया है। वर्तमान (9) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002905
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2004
Total Pages696
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_sthanang
File Size21 MB
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