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२८. [१] जो पुद्गल अपर्याप्तक-सम्मूर्छिम-जलचर-प्रयोग-परिणत हैं, वे औदारिक, तैजस और कार्मणशरीर-प्रयोग-परिणत हैं। इसी प्रकार पर्याप्तक-सम्मूर्छिम-जलचर-प्रयोग-परिणत पुद्गलों के सम्बन्ध में जानना चाहिए।
28. [1] The matter particles (pudgala) that are aparyaptak sammurchhim jalachar prayoga parinat pudgala (matter consciously transformed as underdeveloped bodies of aquatic animals of asexual origin) are, in fact, consciously transformed as gross physical (audarik), fiery (taijas) and karmic (karman) bodies. The same is true for paryaptak sammurchhim jalachar prayoga parinat pudgala (matter consciously transformed as fully developed bodies of aquatic animals of asexual origin).
[२] गब्भवक्कंतिया अपज्जत्तया एवं चेव। [३] पज्जत्तयाणं एवं चेव, नवरं सरीरगाणि चत्तारि जहा बादरवाउक्काइयाणं पज्जत्तगाणं। __ [२] गर्भज-अपर्याप्तक-जलचर के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए। [ ३ ] गर्भजपर्याप्तक-जलचर के विषय में भी इसी तरह जानना चाहिए। किन्तु विशेषता यह है कि उनको पर्याप्तक बादर वायुकायिकवत् चार शरीर होते हैं।
[2] The same should be repeated for matter particles related to aparyaptak garbhavyutkrantik jalachar (underdeveloped aquatic animals born out of womb). [3] The same is also true for paryaptak garbhavyutkrantik jalachar (fully developed aquatic animals born out of womb) with a difference that like air-bodied beings they have four kinds of bodies.
[४] एवं जहा जलचरेसु चत्तारि आलावगा भणिया एवं चउप्पय-उरपरिसप्प-भुयपरिसप्पखहयरेसु वि चत्तारि आलावगा भाणियव्वा।
[४] जिस तरह जलचरों के चार आलापक कहे हैं, उसी प्रकार चतुष्पद, उरःपरिसर्प, भुजपरिसर्प एवं खेचरों के भी (१. सम्मूर्छिम, २. गर्भज, ३. पर्याप्तक, ४. अपर्याप्तक) चार-चार आलापक कहने चाहिए।
[4] Like the four statements (regarding sammurchhim, garbhaj, paryaptak, and aparyaptak) about aquatic animals, repeat four statements each about chatushpad, ur-parisarp, bhuj-parisarp and khechar (quadrupeds, non-limbed reptiles, limbed reptiles and aerial animals).
२९. [१] जे सम्मुच्छिममणुस्सपंचिंदियपयोगपरिणया ते ओरालिय-तेया-कम्मासरीर जाव परिणया। [२] एवं गब्भवक्कंतिया वि अपज्जत्तगा वि। [३] पज्जत्तगा वि एवं चेव, नवरं सरीरगाणि पंच भाणियवाणि।
| भगवती सूत्र (२)
(486)
Bhagavati Sutra (2)
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