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________________ a55听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听m ७. [प्र. १ ] भगवन् ! क्या जीव आत्मारम्भी हैं, परारम्भी हैं, तदुभयारम्भी हैं अथवा अनारम्भी हैं ? _[उ. ] गौतम ! कितने ही जीव आत्मारम्भी भी हैं, परारम्भी भी हैं और उभयारम्भी भी हैं, किन्तु अनारम्भी नहीं हैं। कितने ही जीव आत्मारम्भी नहीं हैं, परारम्भी नहीं हैं और न ही उभयारम्भी हैं, ऊ किन्तु अनारम्भी हैं। 7. (Q. 1) Bhante ! Are living beings atmaarambhi (those who inflict 5 harm to beings themselves), paraarambhi (those who inflict harm to beings through others), tadubhyaarambhi (those who inflict harm both ways) or anaarambhi (those who are free of harmful intent)? (Ans.) Gautam ! Some living beings are atmaarambhi, paraarambhi and tadubhyaarambhi but not free of harmful intent (anaarambhi). Some living beings are not atmaarambhi, not paraarambhi and not tadubhyaarambhi but are free of harmful intent (anaarambhi) [प्र. २ ] से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चति-अत्थेगइया जीवा आयारंभा वि ? एवं पडिउच्चारेयव्वं।। [उ. ] गोयमा ! जीवा दुविहा पण्णत्ता। तं जहा-संसारसमावनगा य असंसारसमावनगा या तत्थ णं जे ते असंसारसमावनगा ते णं सिद्धा, सिद्धा णं नो आयारंभा जाव अणारंभा। तत्थ णं जे ते संसारसमावनगा ते दुविहा पण्णत्ता। तं जहा-संजता य, असंजता य। तत्थ णं जे ते संजता ते दुविहा पण्णत्ता। तं जहाॐ पमत्तसंजता य, अप्पमत्तसंजता य। तत्थ णं जे ते अप्पमत्तसंजता ते णं नो आयारंभा, नो परारंभा, जाव ॥ अणारंभा। तत्थ णं जे ते पमत्तसंजता ते सुभं जोगं पडुच्च नो आयारंभा जाव अणारंभा, असुभं जोगं पडुच्च ॐ आयारंभा वि जाव नो अणारंभा। तत्थ णं जे ते असंजता ते अविरतिं पडुच्च आयारंभा वि जाव नो अणारंभा वि जाव नो अणारंभा। तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-अत्थेगइया जीवा जाव अणारंभा। [प्र. २ ] भगवन् ! किस कारण से आप ऐसा कहते हैं कि कितने ही जीव आत्मारम्भी भी हैं ? इत्यादि पूर्वोक्त सभी प्रश्न का पुनः उच्चारण करना चाहिए। [उ. ] गौतम ! जीव दो प्रकार के होते हैं, जैसे-संसारसमापन्नक और असंसारसमापन्नक। उनमें से 9 जो जीव असंसारसमापन्नक हैं, वे सिद्ध (मुक्त) हैं और सिद्ध भगवान न तो आत्मारम्भी हैं, न परारम्भी म हैं और न ही उभयारम्भी हैं, किन्तु अनारम्भी हैं। जो संसारसमापन्नक जीव हैं, वे दो प्रकार के हैं-संयत और असंयत। संयत दो प्रकार के हैं-प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत। उनमें जो अप्रमत्तसंयत हैं, वे न तो , आत्मारम्भी हैं, न परारम्भी हैं और न उभयारम्भी हैं, किन्तु अनारम्भी हैं। जो प्रमत्तसंयत हैं वे शुभयोग ऊ की अपेक्षा से न आत्मारम्भी हैं, न परारम्भी हैं और न उभयारम्भी हैं, किन्तु अनारम्भी हैं। वे ही अशुभयोग की अपेक्षा से आत्मारम्भी भी हैं, परारम्भी भी हैं और उभयारम्भी भी हैं, किन्तु अनारम्भी है नहीं हैं। जो असंयत हैं, वे अविरति की अपेक्षा आत्मारम्भी हैं, परारम्भी हैं, उभयारम्भी भी हैं, किन्तु ॐ अनारम्भी नहीं हैं। इस कारण गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि कितने ही जीव आत्मारम्भी हैं, यावत् ॥ अनारम्भी भी हैं। B55555555555555555555555555555))))))))))) | भगवतीसूत्र (१) (38) Bhagavati Sutra (1) 991955555555555555555555555 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002902
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhyaprajnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2005
Total Pages662
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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