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फफफफफफफफफफफफ 5 suppression), ushna ( heat), gati (movement ), parinam (transformation ), pradesh (sections ), avagahana (space occupation), vargana (category), sthan (place) and alpabahutva (quantitative comparison).
"Bhante! Indeed that is so. Indeed that is so." With these words... and
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so on up to... ascetic Gautam resumed his activities. विवेचन : प्रस्तुत सूत्र में एक लेश्या को दूसरी लेश्या का संयोग प्राप्त होने पर वह उसी लेश्या के वर्ण, गन्ध, फ्र
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रस और स्पर्श रूप में परिणत होती है या नहीं ? इस प्रश्न का उत्तर प्रज्ञापना के लेश्यापद के चतुर्थ उद्देशक 5 (परिणामादि द्वारों तक) का अतिदेश संदर्भ देकर दिया गया है।
प्रज्ञापना में उक्त मूलपाठ का भावार्थ इस प्रकार है
[प्र. ] 'भगवन् ! क्या कृष्णलेश्या नीललेश्या (के संयोग) को प्राप्त करके तद्रूप यावत् तत्स्पर्श रूप में
बारम्बार परिणत होती है ?'
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जिस प्रकार छाछ का संयोग मिलने से दूध अपने मधुरादि गुणों को छोड़कर छाछ के वर्ण, गन्ध, रस और
फ स्पर्श के रूप में परिवर्तित हो जाता है, अथवा जैसे श्वेत वस्त्र लाल, पीले रंग का संयोग पाकर उस रंग के
रूप, वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्शरूप में परिणत हो जाता है, वैसे ही कृष्णलेश्या भी नीललेश्या का संयोग
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[ उ. ] इसका तात्पर्य यह है कि कृष्णलेश्या - परिणामी जीव, यदि नीललेश्या के योग्य द्रव्यों को ग्रहण
करके मृत्यु पाता है, तब वह जिस गति-योनि में उत्पन्न होता है; वहाँ नीललेश्या - परिणामी होकर उत्पन्न होता है क्योंकि जैसा कहा है- 'जल्लेसाई दव्बाई परियाइत्ता कालं करेइ, तल्लेसे उववज्जइ' अर्थात् जिस लेश्या के द्रव्यों
को ग्रहण करके जीव मृत्यु पाता है, उस लेश्या वाला होकर उत्पन्न होता है। जो कारण होता है, वही संयोगवश
कार्यरूप बन जाता है। जैसे- कारणरूप मिट्टी साधन-संयोग से घटादि कार्यरूप बन जाती है, वैसे ही कृष्णलेश्या 5
भी कालान्तर में साधन-संयोगों को पाकर नीललेश्या के रूप में परिणत (परिवर्तित हो जाती है। ऐसी स्थिति 卐
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में
कृष्ण और नीललेश्या में सिर्फ औपचारिक भेद रह जाता है, मौलिक भेद नहीं। ( इस परिणमन को उदाहरण 5 देकर समझाया है।)
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चतुर्थ
शतक : दशम उद्देशक
॥ चतुर्थ शतक : दशम उद्देशक समाप्त ॥
॥ चतुर्थ शतक समाप्त ॥
॥ भगवतीसूत्र : प्रथम भाग समाप्त ॥
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पाकर उसके रूप और स्पर्श में परिणत हो जाती है। जैसे कृष्णलेश्या को तेजोलेश्या पद्मलेश्या को तथा
5 पद्मलेश्या शुक्ललेश्या को पाकर उसके रूप, वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्शरूप में परिणत हो जाती है, इत्यादि सब फ्र कहना चाहिए ।
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Elaboration-In this aphorism reference of the fourth lesson of Leshyapad from Prajnapana Sutra has been given in answer to the question-Does one leshya (soul-complexion) get converted or not into 卐 the form and colour of another leshya on coming in its contact? The related text from Prajanapana Sutra is as follows-
Fourth Shatak: Tenth Lesson
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