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))))))5555555555555555555 विवेचन : प्रमत्तसंयम का काल-प्रमत्तसंयम प्राप्त करने के पश्चात् यदि तुरन्त एक समय बीतने पर ही प्रमत्तसंयमी की मृत्यु हो जाये, इस अपेक्षा से प्रमत्तसंयमी का जघन्यकाल एक समय कहा है। ___ अप्रमत्तसंयम का जघन्यकाल-अन्तर्मुहूर्त इसलिए बताया गया है कि अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती जीव अन्तर्मुहूर्त के बीच में मरता नहीं है। उपशमश्रेणी करता हुआ जीव बीच में ही काल कर जाये इसके लिए जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त का बताया है। इसका उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि काल केवलज्ञानी की अपेक्षा से बताया गया है। क्योंकि केवली भी अप्रमत्तसंयत की गणना में आते हैं। छठे गुणस्थान से ऊपर के सभी गुणस्थान अप्रमत्तसंयत हैं।
Elaboration-Duration of pramatt samyat--The minimum duration of negligent restraint (pramatt samyam) has been indicated as one Samaya keeping in view that an ascetic may die immediately on reaching the level of pramatt samyam.
The minimum duration of alert-restraint (pramatt samyam) has been indicated as one Antarmuhurt keeping in view that an ascetic does not die within one Antarmuhurt of reaching the level of apramatt samyam. A soul rising the levels of pacification of karmas (upasham shreni) in the process, that is the reason the minimum duration is stated as one Antarmuhurt. The maximum duration of slightly more than one Purvakoti is in context of an omniscient, who too falls in the category of apramatt samyat. All the Gunasthans higher than the sixth one refer to the apramatt samyats. लवणसमुद्र में वृद्धि-हानि कारण CAUSE OF EBB AND TIDE IN LAVAN SAMUDRA
१७. [प्र. ] 'भंते ! त्ति भगवं गोतमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासि-कम्हा णं भंते ! लवणसमुद्दे चाउद्दस-ऽट्टमुद्दिठ्ठपुण्णमासिणीसु अतिरेयं वहति वा हायति वा ?'
[उ. ] लवणसमुद्दवत्तव्वया नेयव्वा जाव लोयद्विती। जाव लोयाणुभावे। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरति।
॥ तइए सए : तइओ उद्देसो समत्तो ॥ १७. [प्र. ] 'हे भगवन् !' यों कहकर भगवान गौतम ने श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वन्दननमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार पूछा-'भगवन् ! लवणसमुद्र; चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णमासी; इन चार तिथियों में क्यों अधिक बढ़ता या घटता है ?'
[उ. ] हे गौतम ! जीवाभिगमसूत्र में लवणसमुद्र के सम्बन्ध में जैसा कहा है, वैसा यहाँ भी जान लेना चाहिए; यावत् ‘लोकस्थिति' से लोकानुभाव' शब्द तक कहना चाहिए।
'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है; यों कहकर यावत् गौतम स्वामी विचरण करते हैं।
भगवतीसूत्र (१)
(456)
Bhagavati Sutra (1)
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