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________________ ) )) )) )) )) )) ))) ) )) )) ) ) ) ) ) 卐 विवेचन : प्रस्तुत सूत्रों (सूत्र ११ से १४ तक) में प्रतिपादित तथ्यों का सार इस प्रकार है-(१) जब तक ॥ जीव कम्पन, चलन, स्पन्दन, भ्रमण, क्षोभन, उदीरण आदि विविध क्रियाएँ करता है, तब तक उस जीव को अन्तक्रिया नहीं हो सकती, क्योंकि इन क्रियाओं के कारण जीव आरम्भ, संरम्भ, समारम्भ में प्रवर्तमान होकर । ॐ नाना जीवों को दुःख पहुँचाता एवं पीड़ित करता है। अतः क्रिया से कर्मबन्ध होते रहने के कारण वह अकर्मरूप है (क्रियारहित) नहीं हो सकता। (२) जीव सदा के लिए क्रिया न करे, ऐसी स्थिति आ सकती है और जब ऐसी स्थिति आती है, तब वह के सर्वथा क्रियारहित होकर अन्तक्रिया (मुक्ति) प्राप्त कर सकता है। E (३) जब क्रिया नहीं होगी तब क्रियाजनित आरंभादि नहीं होगा, और न ही उसके फलस्वरूप कर्मबन्ध होगा, तथा बँधे हुए शुक्लध्यान रूप आदि से शीघ्र ही भस्म हो जायेंगे। ऐसी अकर्मस्थिति में अन्तक्रिया होगी। म इसे ठीक से समझाने के लिए तीन दृष्टान्त दिये हैं-(१) प्रथम घास के सूखे पूलों का, (२) दूसरा तपे हुए कड़ाह का (दोनों का भाव शुक्लध्यान स्थित आत्मा के बँधे कर्म भस्मसात् हो जाते हैं), और (३) तीसरा दृष्टान्त, ॐ सच्छिद्र नौका का। तीसरे दृष्टान्त का तात्पर्य इस प्रकार है जैसे, कोई व्यक्ति नौका के समस्त छिद्रों को बन्द कर 卐 नौका में भरे हुए सारे पानी को उलीचकर बाहर निकाल दे तो वह नौका तुरन्त पानी के ऊपर आ जाती है; + इसी प्रकार आस्रवरूप छिद्रों द्वारा कर्मरूपी पानी से भरी हुई जीवरूपी नौका को, कोई आत्म-संवृत एवं उपयोगपूर्वक समस्त क्रिया करने वाला अनगार आस्रवद्वारों (छिद्रों) को बन्द कर देता है और निर्जरा द्वारा + संचित कर्मों को रिक्त कर देता है, ऐसी स्थिति में केवल ऐर्यापथिकी क्रिया उसे लगती है, वह भी प्रथम समय में म बद्ध-स्पृष्ट होती है, अर्थात् प्रथम समय में वह कर्म रूप से परिणत होती है, इसलिए यह ‘बद्ध' और जीवप्रदेशों के साथ उसका ‘स्पर्श' होता है इसलिए वह 'स्पृष्ट' कहलाती है। द्वितीय समय बद्ध कर्म का वेदन होता है, तृतीय ॐ समय में उसकी निर्जरा हो जाती है। इस प्रकार की अक्रिय-आस्रवरहित अकर्मरूप स्थिति में जीवरूपी नौका 5 ऊपर आकर तैरती है। वह क्रियारहित व्यक्ति संसारसमुद्र से तिरकर अन्तक्रियारूप मुक्ति पा लेता है। (टीकानुवाद सहित पं. बेचरदास जी, खण्ड २, पृष्ठ ७६-८०) ईरियावहिया = केवल कषाय शून्य योगों से होने वाली ईर्यापथिकी क्रिया। उपशान्तमोह, क्षीणमोह और सयोगीकेवली ११, १२ व १३वें गुणस्थानवर्ती वीतरागों में जब तक ऐसी सूक्ष्म ईर्यापथिकी क्रिया रहती है, तब तक उनके सातावदेनीय कर्मबन्ध होता है। Elaboration-The gist of the information contained in the aforesaid aphorisms (11 to 14) is (1) As long as a living being trembles, pulsates, moves in all directions, gets agitated, gets intensely inspired, he is unable to undergo the terminal activity (liberation) because he continues to indulge in violent or sinful activities (aarambh), resolve to indulge in 4 sinful activity (samrambh), and acts of tormenting (samaarambh) 41 $i causing misery to many living beings. This leads to continued bondage of karmas and the state of absence of karmas cannot be achieved. 5 (2) The state of absence of all activity can be attained. When a being reaches that stage he may become absolutely inactive and undergo terminal activity (liberation). )) ) ) )) ) ) ) ) ) )) ) )) ))) )) )) मएफ ए ) म 卐) तृतीय शतक : तृतीय उद्देशक (453) Third Shatak : Third Lesson ज Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002902
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhyaprajnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2005
Total Pages662
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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