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________________ 255555 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55555555952 卐 बायीं भुजा २८. (ख) इस प्रकार कहकर वह वहाँ से (सीधा ) उत्तर - 1 र-पूर्व दिशा - विभाग (ईशानकोण) में चला गया। पुनः उसने वैक्रियसमुद्घात किया; (दूसरी बार ) वैक्रियसमुद्घात से समवहत होकर उसने एक महाघोर, घोराकृतियुक्त, भयंकर, भयंकर आकार वाला, भास्वर, भयानक, गम्भीर, त्रासदायक, काली कृष्णपक्षीय (अमावस्या की ) अर्ध-रात्रि एवं काले उड़दों की राशि के समान काला, एक लाख योजन का ऊँचा, महाकाय शरीर बनाया। ऐसा करके वह चमरेन्द्र अपने हाथों को पछाड़ने लगा, (मेघ की तरह) गर्जना करने लगा, घोड़े की तरह हिनहिनाने लगा, हाथी की तरह किलकिलाहट (चीत्कार) करने लगा, रथ की तरह घनघनाहट करने लगा, पैरों को जमीन पर जोर से पटकने (आघात करने) लगा, भूमि पर जोर से ( हथेली से ) थप्पड़ मारने लगा, सिंहनाद करने लगा, उछलने लगा, पछाड़ मारने लगा, (मल्ल की तरह मैदान में) त्रिपदी को छेदने लगा; (भूमि पर तीन बार पदाघात करने लगा), ऊँची करने लगा, फिर दाहिने हाथ की तर्जनी अंगुली और अँगूठे के नख द्वारा अपने मुख को तिरछा फाड़कर बिडम्बित - (टेढ़ा-मेढ़ा) करने लगा, और बड़े जोर-जोर से कलकल शब्द करने लगा । यों करता हुआ वह चमरेन्द्र स्वयं अकेला, किसी को साथ में न लेकर परिघरत्न ( मुद्गर) लेकर ऊपर आकाश में उड़ा। (उड़ते समय अपनी उड़ान से) वह मानो अधोलोक को क्षुब्ध करता हुआ, पृथ्वीतल को मानो कँपाता हुआ, तिरछे लोक को खींचता हुआ-सा, गगनतल को मानो फोड़ता हुआ, कहीं गर्जना करता हुआ, कहीं बिजली की तरह कौंधता हुआ, कहीं वर्षा के समान बरसता हुआ, कहीं धूल का ढेर उड़ाता (उछालता) हुआ, कहीं सघन अन्धकार का दृश्य उपस्थित करता हुआ, तथा ( जाते-जाते ) वाणव्यन्तर देवों को त्रास पहुँचाता हुआ, ज्योतिषी देवों के बीच में से दो भागों में विभक्त करता हुआ एवं आत्मरक्षक देवों को भगाता हुआ, परिघरत्न को आकाश में घुमाता हुआ, उसे विशेष रूप से चमकाता हुआ, उस उत्कृष्ट दिव्य देवगति से तिरछे असंख्येय द्वीपसमुद्रों के बीचोंबीच होकर निकला । यों निकलकर जिस ओर सौधर्मकल्प था, सौधर्मावतंसक विमान था और जहाँ सुधर्मासभा थी, उसके निकट पहुँचा । वहाँ पहुँचकर उसने एक पैर पद्मवरवेदिका पर रखा और दूसरा पैर सुधर्मासभा में रखा। फिर बड़े जोर से हुंकार ( आवाज ) करके उसने परिघरत्न से तीन बार इन्द्रकील ( शक्रध्वज अथवा मुख्यद्वार के दोनों कपाटों के अर्गलास्थान) को पीटा ( प्रताड़ित किया) । तत्पश्चात् उसने (जोर से चिल्लाकर) इस प्रकार कहा- 'अरे ! वह देवेन्द्र देवराज शक्र कहाँ है ? कहाँ हैं उसके वे चौरासी हजार सामानिक देव ? यावत् कहाँ हैं उसके वे तीन लाख छत्तीस हजार आत्मरक्षक देव ? कहाँ गई वे अनेक करोड़ अप्सराएँ ? आज ही मैं उन सबको मार डालता हूँ, आज ही उनका मैं वध कर डालता हूँ। जो अप्सराएँ मेरे अधीन नहीं हैं, वे अभी मेरी वशवर्तिनी हो जायें।' इस प्रकार चमरेन्द्र ने वे अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अशुभ, अमनोज्ञ, अमनोहर और कठोर वचन बोले । 28. (b) After uttering these words he proceeded straight in the northeast direction (Ishan Kone). He underwent Vaikriya Samudghat a second time and acquired a grotesque and extremely repulsive form; a fearful and terrifying shape that was shining, dreadfully, densely and appallingly black, like a dark midnight or a pile of black pulses; and a Bhagavati Sutra (1) भगवतीसूत्र (१) (422) फफफफफफफफ Jain Education International For Private & Personal Use Only B 4 ததததி******மிதிமிதிததமிததமிழமிழமிழதகழசுகமிமிமிமிதததி 卐 卐 www.jainelibrary.org
SR No.002902
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhyaprajnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2005
Total Pages662
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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