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________________ जवासे सुंसुमारपुरे नगरे असोगवणसडे उज्जाणे असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिलावट्टयंसि अट्ठमभत्तं पगिण्हित्ता एगराइयं महापडिमं उवसंपज्जित्ताणं विहरति। तं सेयं खलु मे समणे भगवं महावीरं नीसाए सक्कं देविंदं देवरायं सयमेव अच्चासादेत्तए' त्ति कटु एवं संपेहेइ, संपेहित्ता सयणिज्जाओ अब्भुट्टेइ, अन्भुढेत्ता देवदूसं परिहेइ, परिहत्तिा उववायसभाए पुरथिमिल्लेणं दारेणं णिग्गच्छइ, णिग्गिच्छित्ता जेणेव ॐ सभा सुहम्मा, जेणेव चोप्पाले पहरणकोसे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता फलिहरयणं परामुसइ, ॐ परामुसित्ता एगे अबिइए फलिहरयणमायाए महया अमरिसं वहमाणे चमरचंचाए रायहाणीए मझमझेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव तिगिंछिकूडे उप्पायपव्वए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता वेउव्वियसमुग्घाएणं समोहण्णइ, समोहणित्ता संखेज्जाइं जोयणाई जाव उत्तरवेउब्वियं रूवं विकुब्बइ। विउव्वित्ता ताए उक्किट्ठाए जाव जेणेव पुढविसिलावट्टए जेणेव ममं अंतिए तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता ममं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेति, जाव नमंसित्ता एवं वयासी-'इच्छामि णं भंते ! तुभं नीसाए सक्कं देविंदं देवरायं सयमेव अच्चासाइत्तए। ॐ २८. (क) इसके पश्चात् उस असुरेन्द्र असुरराज चमर ने अवधिज्ञान का प्रयोग किया। अवधिज्ञान के प्रयोग से उसने मुझे (महावीर स्वामी को) देखा। मुझे देखकर चमरेन्द्र को इस प्रकार का आन्तरिक मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ कि श्रमण भगवान महावीर जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भरतवर्ष में, सुंसुमारपुर नगर में, अशोकवनषण्ड नामक उद्यान में, श्रेष्ठ अशोक वृक्ष के नीचे पृथ्वीशिलापट्टक पर 5 अट्ठमभत्त तप स्वीकार कर एकरात्रि की महाप्रतिमा अंगीकार करके स्थित हैं। अतः मेरे लिए यह ॐ श्रेयस्कर होगा कि मैं श्रमण भगवान महावीर के निश्रा (आश्रय) से देवेन्द्र देवराज शक्र को स्वयमेव (एकाकी ही) श्रीहीन करूँ। इस प्रकार विचार करके वह चमरेन्द्र अपनी शय्या से उठा और उठकर उसने देवदूष्य वस्त्र पहना। फिर, उपपातसभा के पूर्वीद्वार से होकर निकला और जहाँ सुधर्मासभा थी, म तथा जहाँ चतुष्पाल (चौपाल) नामक शस्त्रभण्डार था, वहाँ आया। शस्त्रभण्डार में से उसने एक परिघरत्न (मुद्गर) उठाया। फिर वह किसी को साथ लिए बिना अकेला ही उस परिघरत्न को लेकर अत्यन्त रोषाविष्ट होता हुआ चमरचंचा राजधानी के बीचोंबीच होकर निकला और तिगिच्छकूट नामक 5 उपपात पर्वत के निकट आया। वहाँ उसने वैक्रिय समुद्घात किया। संख्यात योजनपर्यन्त का विशाल उत्तरवैक्रियरूप बनाया। फिर वह उस उत्कृष्ट यावत् दिव्य देवगति से जहाँ पृथ्वीशिलापट्टक था, वहाँ मेरे पास आया। मेरे पास उसने दाहिनी ओर से मेरी तीन बार प्रदक्षिणा की, मुझे वन्दन-नमस्कार किया और यों बोला-"भगवन् ! मैं आपके निश्राय से अकेला ही देवेन्द्र देवराज शक्र को उसकी शोभा से भ्रष्ट करना चाहता हूँ।" 28. (a) After that Chamarendra, the overlord (Indra) of Asurs, employed his Avadhi-jnana and saw me (Bhagavan Mahavir). On seeing me he had this inner desire—“Taking the vow of a three day fast (avoiding eight meals) and accepting Maha-pratima for a night, 4 Shraman Bhagavan Mahavir stands on a slab of rock lying under an excellent Ashoka tree in the Ashoka garden, in Sumsumar-pur city, in A听听听听听听听听听听听听$5 $ $$ $$$$ $$ $$ 5555 55 $ 5555555555555 卐5 959) $$$$$乐 乐乐 भगवतीसूत्र (१) (420) Bhagavati Sutra (1) 555555555555555555555555555558 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002902
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhyaprajnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2005
Total Pages662
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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