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after the time of utterance is over is non-speech.' So, is that the speech of 46 the person who is uttering or of the person who is not uttering ?
(Ans.] It is the speech of the person who is uttering and not of the person who is not uttering?
(12) The act preceding the action is not the cause of misery. What has been said about speech is applicable here... and so on up to... It is misery when it is action and not misery when it is non-action ? So it should be said.
(13) Action is misery, touching is misery, action where action is required is misery. Doing that praan, bhoot, jiva and sattva suffer pain. So it should be said.
विवेचन : अन्यतीर्थिकों के मिथ्या मन्तव्यों का निराकरण-(१) चलमान कर्म प्रथम क्षण में चलित नहीं होगा तो द्वितीय आदि समयों में भी अचलित ही रहेगा, फिर तो किसी भी समय वह कर्म चलित होगा ही नहीं। अतः । चलमान चलित नहीं होता, यह कथन अयुक्त है। (२) परमाणु सूक्ष्म और स्निग्धतारहित होने से नहीं चिपकते,
यह कथन भी अयुक्त है, क्योंकि एक परमाणु में भी स्निग्धता होती है, अन्यतीर्थिकों ने जब डेढ़-डेढ़ परमाणुओं ऊ के चिपक जाने की बात स्वीकार की है, तब उनके मत से आधे परमाणु में भी चिकनाहट होनी चाहिए। ऐसी + स्थिति में दो परमाणु भी चिपकते हैं, यही मानना युक्तियुक्त है। (३) 'डेढ़-डेढ़ परमाणु चिपकते हैं' यह है
अन्यतीर्थिक-कथन भी युक्तियुक्त नहीं, क्योंकि परमाणु के दो भाग हो ही नहीं सकते, दो भाग हो जायें तो वह
परमाणु नहीं कहलायेगा। (४) 'चिपके हुए पाँच पुद्गल कर्मरूप (दुःखत्वरूप) होते हैं' यह कथन भी असंगत है, ॐ क्योंकि कर्म, अनन्त परमाणरूप होने से अनन्त स्कन्धरूप है और पाँच परमाण जड़ने से तो स्कन्ध होता है, तथा म कर्म जीव को आवृत करने के स्वभाव वाले हैं, अगर ये पाँच परमाणुरूप ही हों तो असंख्यात प्रदेश वाले जीव के
को कैसे आवृत कर सकेंगे? तथा (५) कर्म (दुःख) को शाश्वत मानना भी ठीक नहीं क्योंकि कर्म को यदि
शाश्वत माना जायेगा तो कर्म का क्षयोपशम, क्षय आदि न होने से ज्ञानादि की हानि और वृद्धि नहीं हो सकेगी ॐ परन्तु ज्ञानादि की हानि-वृद्धि लोक में प्रत्यक्षसिद्ध है। अतः कर्म (दुःख) शाश्वत नहीं है। तथा आगे उन्होंने जो ॥ 卐 कहा है कि (६) कर्म (दुःख) चय को प्राप्त होता है, नष्ट होता है, यह कथन भी कर्म को शाश्वत मानने पर कैसे :
घटित होगा? (७) भाषा की कारणभूत होने से बोलने से पूर्व की भाषा, भाषा है, वह कथन भी अयुक्त तथा :
औपचारिक है। बोलते समय की भाषा को अभाषा कहने का अर्थ हुआ-वर्तमानकाल व्यवहार का अंग नहीं है, म यह कथन भी मिथ्या है। क्योंकि विद्यमानरूप वर्तमानकाल ही व्यवहार का अंग है। भूतकाल नष्ट हो जाने के
कारण अविद्यमानरूप है और भविष्य असद्रूप होने से अविद्यमानरूप है, अतः ये दोनों काल व्यवहार के अंग 5 नहीं हैं। (८) बोलने से पूर्व की भाषा को भाषा मानकर भी उसे न बोलते हुए पुरुष की भाषा मानना तो और
भी युक्तिविरुद्ध है। क्योंकि अभाषक की भाषा को ही भाषा माना जायेगा तो सिद्ध भगवान को या जड़ को भाषा फ़ की प्राप्ति होगी, जो भाषक हैं, उन्हें नहीं। (९) की जाती हुई क्रिया को दुःखरूप न बताकर पूर्व की हुई या क्रिया ॥ ज के बाद की क्रिया बताना भी अनुभवविरुद्ध है, क्योंकि करने के समय ही क्रिया सुखरूप या दुःखरूप लगती है,
करने से पहले या करने के बाद (नहीं करने से) क्रिया सुखरूप या दुःखरूप नहीं लगती। इस प्रकार अन्यतीर्थिकों के मत का निराकरण करके भगवान द्वारा प्ररूपित स्वसिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है। (वृत्ति, पत्रांक १०२-१०४)
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प्रथम शतक : दशम उद्देशक
(221)
First Shatak : Tenth Lesson
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