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________________ 55555555555555555)))))) पृथ्वीकायिक आदि जीवों को मायी-मिथ्यादृष्टि कहने का कारण स्पष्ट करते हुए बताया है, इसका एक कारण है-अनन्तानुबंधी कषाय। जिनको अनन्तानुबन्धी कषाय होता है, वे मिथ्यादृष्टि होते हैं। दूसरा अर्थ है-वे मूर्छित और उन्मत्त पुरुष की तरह बेसुध होकर कर्मों का फल भोगते हैं। उन्हें यह ज्ञान नहीं होता कि हमें यह पीड़ा कौन दे रहा है और क्यों दे रहा है। किस कर्म के उदय से यह वेदना हो रही है तथा मायाचरण का सेवन करने के कारण ही वे पृथ्वीकाय में आये हैं। ___ मनुष्यों के आहार की विशेषता-मनुष्य दो प्रकार के होते हैं-महाशरीरी और अल्पशरीरी। महाशरीरी मनुष्य और नारकी दोनों बहुत पुद्गलों का आहार करते हैं, किन्तु दोनों के पुद्गलों में बहुत अन्तर है। महाशरीरी नारकी जिन पुद्गलों का आहार करते हैं, वे निःसार और स्थूल होते हैं, जबकि मनुष्य-विशेषतः देवकुरुउत्तरकुरु के भोगभूमिज मनुष्य जिन पुद्गलों का आहार करते हैं, वे सारभूत और सूक्ष्म होते हैं। भोगभूमिज मनुष्यों का शरीर तीन गाऊ का होता है और उनका आहार अष्टभक्त-अर्थात्-तीन दिन में एक बार होता है, इस अपेक्षा से महाशरीरी मनष्यों को कदाचित आहार करने वाले (एक दृष्टि से अल्पाहारी) कहा गया है। जैसे एक तोला चाँदी से एक तोला सोने में अधिक पुद्गल होते हैं, वैसे ही देवकुरु-उत्तरकुरु के मनुष्यों का आहार दीखने में कम होते हुए भी सारभूत होने से उसमें अल्पशरीरी मनुष्य के आहार की अपेक्षा अधिक पुद्गल होते हैं। इस दृष्टि से उन्हें बहुत पुद्गलों का आहार करने वाला कहा गया है। अल्पशरीरी मनुष्यों का आहार निःसार एवं थोड़े पुद्गलों का होने से उन्हें बार-बार करना पड़ता है। विशेष शब्दों की व्याख्या : जो संयम का पालन करता है, किन्तु जिसका संज्वलन कषाय क्षीण या उपशान्त नहीं हुआ, वह सरागसंयत है। जिसके कषाय का सर्वथा क्षय या उपशम हो गया है, वह वीतरागसंयत है। सयोग केवली क्रियारहित कैसे ?-जो महापुरुष कषायों से सर्वथा मुक्त हो गये हैं, वे कर्मबन्ध की कारणभूत क्रिया से रहित हैं। यद्यपि सयोगी अवस्था में योग की प्रवृत्ति से होने वाली ईर्यापथिक क्रिया उनमें विद्यमान है, तथापि कषायरहित होने से वह क्रिया नहीं के बराबर है, इन क्रियाओं में उनकी गणना नहीं है। अप्रमत्तसंयत में मायाप्रत्यया क्रिया इसलिए होती है कि उसमें अभी कषाय अवशिष्ट है और कषाय के निमित्त से होने वाली क्रिया मायाप्रत्यया कहलाती है। (क्रियाओं की व्याख्या स्थानांग, भाग १, २/२-३७ में की जा चुकी है)। Elaboration-Aphorisms 5 to 11 have question-answers about the following ten sources of karmas (dvar) related to the twenty four dandaks (places of suffering) starting from infernal beings to celestial vehicle dwelling gods-(1) Sam-ahar (similarity of intake), (2) Samsharir (similarity of body), (3) Sam-uchchhavas-nihshvas (similarity of inhalation-exhalation), (4) Sam-karma (similarity of karma), (5) Samvarna (similarity of appearance or colour), (6) Sam-leshya (similarity of soul-complexion), (7) Sam-vedana (similarity of suffering of pain), (8) Sam-kriya (similarity of activities), (9) Sam-ayushk (similarity of lifespan), (10) Sam-upapannak (similarity of genesis). Explanation of some unique concepts from these aphorisms are as follows Relative sizes of bodies- The small and large sizes of infernal beings mentioned here are relative. The smallest body of an infernal being is | प्रथम शतक : द्वितीय उद्देशक (67) First Shatak : Second Lesson Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.002902
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhyaprajnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2005
Total Pages662
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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