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नागराज ने ज्ञानबल से देखा-"अहो ! मेरे तारणहार उपकारी तो यह पार्श्वकुमार हैं। इन्हीं के प्रभाव से मैं यहाँ नागकुमारों का इन्द्र बना हूँ।”
नागराज ने आकाश से पार्श्वकुमार को प्रणाम किया। पार्श्वकुमार और नाग के प्रसंग को देखकर लोगों ने "पार्श्वकुमार की जय !" बोली ।
चारों तरफ गूँजने लगा-' - "पार्श्वकुमार की जय ! धर्म की जय !"
कमठ क्रोध में फुंकारता हुआ उठा- "राजकुमार ! तुमने मेरी तपस्या में विघ्न डाला है। फल भुगतने को तैयार रहना। बदला लूँगा।" और वह पाँव जमीन पर पटकता हुआ जंगल की तरफ चला गया। अनेक प्रकार का अज्ञान तप करके मरकर वह मेघमाली नामक असुर देव बना ।
इस घटना के बाद पार्श्वकुमार का चिन्तन नई दिशा में मुड़ गया। वे सोचने लगे- "धर्म पर अज्ञान का आवरण छा रहा है। हिंसक यज्ञ व अज्ञान तप आदि में लोग भटक रहे हैं। उन्हें सत्य धर्म का मार्ग दिखाना चाहिए।" उन्होंने संसार त्यागकर दीक्षा लेने का संकल्प किया ।
ब्रह्मलोक नामक पाँचवें स्वर्ग के नव लोकान्तिक देवों ने आकर प्रार्थना की- "हे प्रभु ! आपका पवित्र संकल्प संसार का कल्याण करेगा । धर्मतीर्थ का प्रवर्तन कीजिए।”
पार्श्वकुमार ने वार्षिक दान दिया। वे एक करोड़ आठ लाख स्वर्ण-मुद्राएँ प्रतिदिन दान करते थे। धनी, गरीब, स्त्री, पुरुष जो भी द्वार पर आता वह मन इच्छित दान प्राप्त करता। इस तरह एक वर्ष में तीन सौ अट्ठासी करोड़ अस्सी लाख स्वर्ण मुद्राएँ दान में दीं।
अभिनिष्क्रमण का समय निकट आने पर हजारों देव तथा राजा पार्श्वकुमार का दीक्षा दिवस मनाने एकत्र हुए। उस समय शीत ऋतु का दूसरा महीना और तीसरा पक्ष चल रहा था। पौष कृष्ण एकादशी के दिन पूर्वा में एक विशाल शिविका में बैठे। आगे मनुष्य तथा पीछे देवगण मिलकर शिविका को कंधों पर उठाये चल रहे थे। हजारों नर-नारी तथा असंख्य देव-देवी पुष्प वर्षा कर रहे थे । शिविका आश्रमपद उद्यान में पहुँची ।
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पार्श्वकुमार ने अपने दिव्य वस्त्र तथा आभूषण उतारे। शक्रेन्द्र ने उन्हें रत्नथाल में ग्रहण किया। फिर केश लुंचन किया । इन्द्र ने प्रभु के शरीर पर देवदूष्य (पीला केसरिया रंग का दुपट्टा) रखा। वृक्ष के नीचे खड़े होकर प्रभु ने 'नमो सिद्धाणं' कहकर नमस्कार किया। करेमि सामाइयं......सव्वं सावज्जं जोग पच्चक्खामि । " मैं आज से सभी सावद्य कर्मों
का त्याग करता हूँ।"
प्रभु के साथ तीन सौ मनुष्यों ने चारित्र ग्रहण किया ।
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क्षमावतार भगवान पार्श्वनाथ
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