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________________ पार्श्व जन्मोत्सव : काशी देश की वाराणसी नगरी में अश्वसेन राजा शासन करते थे। उनकी अश्वसेना में अनेक जाति व अनेक रंगों के घोड़े थे। दूर-दूर के लोग चर्चा करते थे- "राजा की अश्वसेना अजेय और अद्भुत है ।" राजा अश्वसेन की रानी का नाम था वामादेवी । ग्रीष्मकाल के प्रथम मास, प्रथम पक्ष अर्थात् चैत्र मास की कृष्ण चतुर्थी के दिन मध्यरात्रि को विशाखा नक्षत्र के समय चन्द्रमा का योग आ जाने पर बीस सागरोपम की स्थिति वाले दशवें प्राणत देवलोक से सुवर्णबाहु देव का जीव च्यवन कर माता वामादेवी के गर्भ में आया । माता वामादेवी ने सुखशय्या में अर्ध-निद्रावस्था में गज, वृषभादि चौदह महास्वप्न देखे। तत्क्षण सावधान हो एवं स्वप्न की स्मृति कर अपने पतिदेव के पास आई और देखे हुए स्वप्नों का वर्णन किया । राजा ने कहा कि "महारानी ! ऐसे शुभ और महान् स्वप्न-दर्शन से प्रतीत होता है कि तुम्हारे गर्भ में अतिशय पुण्यशाली आत्मा का आगमन हुआ है।" सूर्योदय होते ही राजा ने राजसभा में स्वप्न फल कथन के ज्ञाता विद्वानों को बुलाया। विद्वान पंडितों ने अपने शास्त्रों के आधार पर विचार विमर्श कर कहा-"हे राजन् ! महारानी ने बहुत ही उत्तम स्वप्न देखे हैं। जिससे आपके कुल में केतु समान महाभाग्यशाली पुत्र जन्म लेगा। बड़ा होने पर वह चारों दिशाओं का स्वामी, चक्रवर्ती, राज्यपति राजा होगा या तीन लोक का नायक धर्मश्रेष्ठ, धर्म चक्रवर्ती जिनेश्वर तीर्थंकर होगा। समय आने पर पौष कृष्ण दशमी के दिन रानी ने एक सुन्दर शिशु को जन्म दिया। क्षणभर के लिए समूचे संसार में प्रकाश जगमगा उठा। हर जीव अपने अन्दर दो पल के लिये अपूर्व आनन्द की अनुभूति करने लगा । उस समय का वायुमंडल स्वभाव से ही स्वच्छ, रम्य और सुगन्धमय बन गया। दसों दिशाएँ अचेतन होने पर भी प्रफुलित हो उठीं। भगवान के जन्म के प्रभाव से भिन्न-भिन्न दिशाओं में रहने वाली छप्पन्न दिग्कुमारिकाओं के आसन कम्पायमान हुए। उन्होंने ज्ञान बल से देखा-"अहो, पृथ्वी पर प्रभु ने जन्म लिया है।" भगवान का जन्म जानकर हर्षित होती हुई वे पृथ्वी पर आईं और प्रभु एवं प्रभु-माता को नमस्कार कर कहा- "हे रत्न कुक्षिणी माता ! 'हमें जगतारक प्रभु का सूतिका कर्म करने की आज्ञा प्रदान कीजिए। " छप्पन्न दिग्कुमारिकाओं ने प्रभु का सूतिकर्म तथा स्नानादि कराकर जन्मोत्सव मनाया। जन्मोत्सव सम्पूर्ण होने के पश्चात् शक्रेन्द्र का आसन कम्पायमान हुआ। 32 Jain Education International For Private & Personal Use Only क्षमावतार भगवान पार्श्वनाथ www.jainelibrary.org
SR No.002856
Book TitleBhagvana Mahavira Diwakar Chitrakatha 057 058
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinottamsuri, Shreechand Surana
PublisherDiwakar Prakashan
Publication Year
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Children, & Story
File Size11 MB
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